Monday, 30 December 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 31 December, 2019 at YouTube


     स्पीकर महोदय, मैं सोचता हूँ कि अगर आप डेढ़ वर्ष पीछे जा सकते और फिर यह देख सकते कि इन डेढ वर्षों में क्या हुआ है, तो आपको लगेगा कि भारत बहुत अर्थों में अपनी सब तरह की मुश्किलों और तकलीफों के बावजूद, जिनमें से वह गुजरा है, काफी आगे बढ़ा है।  हमारी सरकार और विशेष कर मुझे बहुत बोझ उठाना पड़ रहा है; हमारे सामने आज भी बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ हैं।  फिर भी, मैं पूरी ईमानदारी से कहता हूँ कि मेरे अंदर न असफलता का भाव है और मैं दूर-भविष्य तो नहीं निकट-भविष्य की ओर पूरे विश्वास के साथ देखता हूँ और अपने अंदर छुपा हुआ एक ऐसा अनुभव पाता हूँ कि मुझे इस भारत के इतिहास के महत्वपूर्ण चरण में हिस्सा लेने का अवसर मिला।  क्योंकि आपने मेरे प्रस्तावों का जिक्र किया है, इसलिए मैं एक चीज कहना चाहूँगा कि बजट में बहुत-सी चीजें हुआ करती हैं, जिनसे कुछ सदस्यों को शायद खुशी न होती हो।  शायद हम इस बात में या उस बात में कुछ और बेहतर काम कर सकते थे लेकिन मैं समझता हूँ कि स्वयं बजट हमारी और हमारे राष्ट्र की ताकत की निशानी है।  मेरे ख्‍याल से जिस ध्यान और दूरदर्शिता के साथ हमारे वित्त मंत्री ने यह बजट तैयार किया है, उससे आने वाले महीनों और वर्षों में हमें बहुत लाभ होगा।
     अगर मैं साफ कहूँ कि हमने बहुत फूँक-फूँक कर कदम रखे हैं क्योंकि हममें आपने जो बहुत बड़ा भरोसा रखा है, उसके बारे में हम जोखिम नहीं उठाना चाहते।  बहुत सी चीजें हैं जो हमने चाहते हुए भी नहीं की, क्योंकि हम भारत के भविष्य और भारत के वर्तमान को दाँव पर नहीं लगा सकते थे।  ऐसी चीजों में भी जो हमारे ही सिद्धांतों और विचारों के अनुसार है अगर, कोई जोखिम या खतरा दिखाई दिया तो, हम उसमें भी आगे नहीं बढ़े तथा हम सतर्कता के साथ आगे बढ़े हैं।  हो सकता है कि अगर हमने ज्यादा साहस नहीं दिखाया होता, तो कुछ काम जल्दी हो जाता, लेकिन में व्यक्तिगत तौर से इस नाजुक वक्त में बहुत होशियारी से चलने की नीति पर चलने से पूरी तरह सहमत हूँ।  जहाँ-जहाँ छोटी-मोटी बात के अलावा, मैं अपने साथी वित्तमंत्री की प्रशंसा करना चाहता हूँ कि किस साहस, दृष्टि और ऊँची बुद्धिमत्ता के साथ उन्होंने समस्या को सुलझाया है।  यह सराहनीय प्रयास है।

Thursday, 26 December 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 27 December, 2019 at YouTube


   स्पीकर महोदय, यह सदन निस्संदेह हमारी विदेश नीति और विदेशी मामलों के बहुत-से पहलुओं में दिलचस्पी रखता है और इस बारे में भी कि भारत पर इसका क्या असर पड़ता है।  संभवतः आज जो बहस होने वाली है उसमें इन बहुत-सी बातों के बारे मैं ध्यान खींचा जाएगा।  लेकिन महोदय मैं आपकी अनुमति और इस सदन की सहमति से विदेशी मामलों और विदेश नीति और उनका भारत पर क्या-क्या असर पड़ता है और हम इनको किस दृष्टि से देखते हैं, इन चीजों के सामान्य पहलुओं के बारे में कुछ कहना चाहूँगा और मुख्य समस्या की छोटी-छोटी बातों में नहीं जाऊँगा।  इससे भी पहले मैं केवल विदेशी मामलों में ही नहीं बल्कि स्वयं भारत के बारे में कुछ आम बातें कहूँगा।  पिछले कुछ दिनों में बजट प्रस्तावों के सिलसिले में बहुत कुछ नुक्ताचीनी की गई और कम या ज्यादा जोर के साथ सरकार की असफलताएँ बताई गई हैं। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं हर तरह की आलोचना का स्वागत करता हूँ और मैं इस बात पर विश्वास करता हूँ कि अगर यह सदन सिर्फ एक गतिहीन सदन, दब्बू सदन या ऐसा सदन जो हर सरकारी चीज की हाँ-में-हाँ मिलाने वाला सदन हो जाए, तो यह मेरे विचार से दुर्भाग्यपूर्ण होगा।  हमेशा चौकन्ना रहना ही स्वतंत्रता की कीमत है और इस सदन के हर सदस्य को हर समय जागृत व चौकन्ना रहना है।  हाँ, सरकार को भी चौकस रहना चाहिए।  लेकिन जो लोग सत्ताधारी होते हैं, उनमें लापरवाह प्रवृत्ति रहती है, इसलिए मैं अपनी तरफ से इस सदन के माननीय सदस्यों की चौकसी का स्वागत करता हूँ, जिन्होंने सरकार की हर गलती, असफलता या कमी की तरफ हमारा ध्यान खींचा है।
   मैं आशा करता हूँ कि यहाँ की आलोचना अच्छी भावना से दोस्ती के तरीकों से की गई है और वह सरकार की ईमानदारी को चुनौती देती है।  हाँ, अगर सरकार की अच्छी भावना को भी चुनौती देने की इच्छा हो तो भी मैं उसमें विरोध नहीं करूँगा, बशर्ते, यह स्पष्ट हो कि यही चीज विचाराधीन है।  इस आलोचना को सुनते हुए या उसके बारे में पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि शायद हम लकड़ी की तुलना में पेड़ों की तरफ ज्यादा ध्यान दे रहे हैं।  पिछले 18 महीनों में जो-कुछ हुआ है उस पर और भारत की सारी तस्वीर पर गौर नहीं कर रहे।  जहाँ तक आप निष्पक्ष रूप से देख सकते हैं अवश्य देखिए।


Wednesday, 2 October 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 03 October, 2019 at YouTube


अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की बढ़ती खीझ का असर आज सार्क यानी दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में भी देखने को मिला। वहां जिस समय भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर अपना शुरुआती बयान दे रहे थे, तब पाकिस्तान के विदेश मंत्री महमूद कुरैशी ने इसका बहिष्कार किया। वह जयशंकर का भाषण खत्म होने के बाद ही बैठक में पहुंचे और यह भी कहा कि जब तक भारत कश्मीर पर अपने फैसले को वापस नहीं लेता, वह किसी वैश्विक मंच पर भारत के साथ नहीं रहेंगे। जाहिर है, भारत को वैसा ही जवाब देना पड़ा। जब पाकिस्तानी विदेश मंत्री का भाषण हुआ, तो भारतीय विदेश मंत्री वहां मौजूद नहीं थे। वैसे एस जयशंकर एक दिन पहले ही यह बयान दे चुके थे कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद का इस्तेमाल अपनी विदेश नीति के औजार की तरह करता रहेगा, उसके साथ किसी भी तरह की बातचीत संभव नहीं है। यह पहली बार नहीं है, जब पाकिस्तान के रवैये के चलते सार्क अपना अर्थ खोने लग गया हो। 2016 का सार्क सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था, लेकिन उसके ठीक पहले उरी में भारतीय सेना के शिविर पर आतंकवादी हमला हो गया। इसके बाद भारत ने घोषणा कर दी कि वह इस्लामाबाद के सार्क सम्मेलन में भाग लेने नहीं जाएगा। उसके बाद बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान भी भारत के समर्थन में आ गए, उन्होंने भी इस्लामाबाद सम्मेलन में शामिल न होने की घोषणा की, जिसके बाद वह सम्मेलन रद्द करना पड़ा था। सार्क का अगला सम्मेलन कोलंबो में इसी साल होना है, लेकिन सार्क जो उम्मीद बंधाता था, उसकी कमर पाकिस्तान बहुत पहले ही तोड़ चुका है। रही-सही कसर इस बार निकल गई, जब संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन से पहले सार्क देशों ने अपनी बैठक का फैसला किया। 
पाकिस्तान की खीझ लगातार इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि कश्मीर मामले पर पूरी दुनिया दो चीजों को अच्छी तरह समझ गई है। एक, कश्मीर में भारत ने जो किया, वह उसका आंतरिक मामला है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना और इस क्षेत्र का दर्जा बदलना ऐसा काम नहीं है, जिसमें किसी अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदे का कोई उल्लंघन हुआ हो। दूसरी, पूरी दुनिया शिमला समझौते की उस भावना को स्वीकार करती है कि जिसे कश्मीर मसला कहा जा रहा है, वह भारत और पाकिस्तान का आपसी विवाद है, जिसे दोनों को खुद ही बातचीत से सुलझाना होगा। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान पिछले कई हफ्तों से पूरी दुनिया की ताकतों से मध्यस्थता की मांग करते घूम रहे हैं, लेकिन कोई भी इसे स्वीकार नहीं कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी इस मसले पर यही कहा है कि कोई भी मध्यस्थता तभी हो सकती है, जब दोनों देश इस पर राजी हों। इस मसले पर चीन भी पाकिस्तान की बहुत ज्यादा मदद नहीं कर पाया।
अब पाकिस्तान को कई सच स्वीकार करने होंगे। पहला यह कि कश्मीर में भारत ने जो किया, वह उसका आंतरिक मामला है, उसे इस पर कुछ बोलने का अधिकार नहीं है। दूसरा, आतंक के इस्तेमाल की नीति ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है और इस नीति को खत्म करने का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन लगता नहीं कि पाकिस्तान इतनी जल्दी इन सच को स्वीकार कर पाएगा।


Thursday, 26 September 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 27 September, 2019 at YouTube



अमेरिका में विगत चार दिनों के तेज घटनाक्रम में न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताकत बढ़ी है, बल्कि भारत को भी कूटनीतिक रूप से पर्याप्त बढ़त मिली है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत को हुआ लाभ इसलिए भी बहुत स्पष्ट होकर उभरा है, क्योंकि एक तरह से पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने स्वीकार कर लिया है कि कश्मीर के मसले पर उनकी कोशिशें नाकाम हुई हैं। विरोध व शंकाओं की कुछ चर्चाओं को छोड़ दीजिए, तो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भरोसा जताते हुए यहां तक कह दिया है कि नरेंद्र मोदी कश्मीर और आतंकवाद को संभाल सकते हैं। भारतीय प्रधानमंत्री पर भरोसा जताकर भारत को अमेरिका ने जो अवसर दिया है, उसका भारत सरकार को भरपूर उपयोग करना चाहिए, ताकि कश्मीर में सामान्य जीवन बहाल हो जाए। यह अवसर भारत की कूटनीति को थोड़ी सशक्त देख अभिभूत होने का नहीं है। आतंकवाद पर अमेरिका में इमरान को कोई पाठ पढ़ाया गया हो, ऐसा दिखा नहीं, क्योंकि न सिर्फ ईरान, बल्कि अफगानिस्तान में भी अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत है। अमेरिका ने अभी केवल इतना संदेश दिया है कि वह भारत पर अतिरिक्त दबाव नहीं बनाएगा। 
कुल मिलाकर, अमेरिकी घटनाक्रम से थोड़ी उम्मीद बढ़ी है, क्योंकि इससे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को भी सबक मिले हैं और भारतीय प्रधानमंत्री को भी। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को यह सबक मिला है कि बाजार और अर्थव्यवस्था की मजबूती के कारण कोई भी भारत के खिलाफ जाना नहीं चाहता। भारत के लिए यह खुशी की बात है, विगत दशकों से यह बात होती आई थी कि भारत अपनी ताकत और महत्व को बढ़ाए, तो दुनिया उसकी बात सुनेगी। आज हम जिस मुकाम पर पहुंच गए हैं, वहां से हमें पीछे नहीं देखना है। भारत को जहां उसके लोकतंत्र, सद्भावी समाज, उदारता, शांति, संयम का लाभ मिलने लगा है, वहीं दूसरी ओर, पाकिस्तान को इन विशेषताओं के अभाव का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। 
ऐसे में, भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने बिल्कुल सामयिक टिप्पणी की है कि भारत को पाकिस्तान से बात करने में कोई परहेज नहीं, लेकिन भारत टेररिस्तानसे बात नहीं करेगा। पाकिस्तान अगर चाहता है कि भविष्य में वैश्विक मंच पर उसकी बात का वजन बढ़े, उसके प्रधानमंत्री का महत्व बढ़े, तो उसे टेररिस्तानहोने के बदनुमा दाग से जल्दी छुटकारा पाना होगा। अभी पाकिस्तान का लिहाज ट्रंप और कुछ देश शायद इसलिए भी कर रहे होंगे, क्योंकि वह परमाणु शक्ति है, उसे एक सीमा तक ही निराश किया जा सकता है। बहरहाल, जब इमरान खान भारत को आर्थिक शक्ति के रूप में देख पा रहे हैं, तो उन्हें भी पाकिस्तान की आर्थिक तरक्की पर फोकस करना चाहिए और इसके लिए सबसे जरूरी है अमन-चैन। भारत पहले ही बोलता रहा है कि दूसरों का अमन-चैन तबाह करके कोई स्वयं कब तक अमन-चैन से रह सकता है? आज पाकिस्तान जहां है, वहां उसे भारत ने नहीं खड़ा किया, वह वहां स्वयं जा फंसा है। पाकिस्तान को अगर वाकई अपनी इज्जत और कश्मीरियों की फिक्र है, तो उसे कश्मीर में अलगाववादियों और आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करके सबसे पहले अपने देश में अमन और तरक्की का नया युग शुरू करना चाहिए।


Monday, 5 August 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 6 August, 2019 at YouTube


   महोदय, राष्ट्रभाषा का ही क्रमिक रूप है राजभाषा।  महात्मा गाँधी को ही यह श्रेय जाता है कि राष्ट्र की कोई एक संपर्क भाषा हो - इस पर उन्होंने बल दिया था।  हालाँकि गाँधीजी के राष्ट्रभाषा संबंधी आग्रह के पीछे मुख्य रूप से राष्ट्रीयता तथा स्वतंत्रता आंदोलन की समग्रता थी।आज हिंदी, संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार भारत की राजभाषा है, लेकिन व्यावहारिक रूप से उसकी जगह अंग्रेजी ही कार्यरत है।  तो मैं बराबर गाँधीजी को याद करता हूँ।  बापू ने आज 70-80 वर्षों पूर्व हिंदी के संबंध में जो बातें कही थीं, वे आज भी सामयिक और सार्थक हैं।  आज, जब हम हिंदी दिवस समारोह मना रहे हैं तो एक बार पुनः गाँधीजी को ही सामने रखकर गंभीरता से विचार करें कि राष्ट्रभाषा के संदर्भ में राष्ट्रपिता की चिंता को भी हमने महत्व नहीं दिया।  बजाय इसके कि यहाँ मैं अपनी ओर से कुछ कहूँ, गाँधी के कहे को ही आपके सामने रखाना चाहता हूँ।  काश ! आज भी राष्ट्र इसे ग्रहण कर ले तो जहाँ एक ओर उसकी अस्मिता में चार चाँद लग जाएँ, वहीं राष्ट्रपिता की आत्मा को भी शांति मिल जाए।  इसीलिए गाँधी जी का लिखा राष्ट्रभाषा संबंधी यह लेख यथावत मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
   हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब होती है, और यदि आप मुझसे यह कहते हैं कि हमारी भाषाएँ अशक्त हैं, कि उनके द्वारा सर्वोत्तम विचार व्यक्त नहीं किए जा सकते तो मैं यह कहूँगा कि हमारा अस्तित्व जितनी जल्‍दी समाप्त हो जाए उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा।  क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो कल्पना करता हो कि अंग्रेजी कभी भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है?  राष्ट्र पर यह मुसीबत क्यों डाली जाए?  मुझे पूना के कुछ प्राध्यापकों के साथ घनिष्ठ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।  उन्होंने मुझे यह विश्वास दिलाया कि हर एक भारतीय युवक चूँकि वह अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा पाता है, इसलिए अपने जीवन के कम से कम छह बहुमूल्य वर्ष व्यर्थ गँवा देता है।  इस संख्या में गुणा कीजिए और फिर स्वयं यह पता लगाइए कि राष्ट्र ने कितने हजार वर्ष गँवा दिये हैं।  हमारे ऊपर आरोप यह लगाया जाता है कि हमारे अंदर आगे बढ़ने की शक्ति नहीं है।  हमारे अंदर वह शक्ति हो ही नहीं सकती है।


Sunday, 7 July 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 8 July, 2019 at YouTube


सभापति महोदय, एक विकलांग बच्‍चा क्षमताओं, योग्‍यताओं तथा अन्‍य बातों में सामान्‍य बच्‍चों से कुछ भिन्‍न होता है।  उसे अन्‍य लोगों से सहयोग की आवश्‍यकता होती है।  इस सहयोग की अपेक्षा सर्वप्रथम वह अपने माता-पिता, आस-पास के वातावरण व समाज से करता है।  इसलिए माता-पिता की जिम्‍मेदारी इस बच्‍चे के प्रति कुछ ज्‍यादा हाती है।  वह बच्‍चे के प्रति अपनी हीन भावना व अपराध बोध को त्‍याग कर, उससे एक सामान्‍य बालक की भाँति अपेक्षाएँ न रखकर संयम के साथ सहज व्‍यवहार करें, क्‍योंकि यही सहज व्‍यवहार बालक के विकास व आत्‍मसम्‍मान की वृद्धि में सहायक सिद्ध होता है।  
यदि परिवार में विकलांग बच्‍चा जन्‍म लेता है या किसी बीमारी या दुर्घटना के कारण से विकलांग हो जाता है, तो परिवार में एक मानसिक तनाव की स्थिति उत्‍पन्‍न हो जाती है।  अभिभावकों का उसके पालन-पेाषण व भविष्‍य को लेकर चिंतित होना स्‍वाभाविक है। परंतु इस चिंता और मानसिक तनाव को किसी भी परिस्थिति में उस विकलांग बच्‍चे के समक्ष प्रकट न करें, यथाशीघ्र चिकित्‍सक, परामर्शदाता, या कोई ऐसी संस्‍था जो उस विकलांगता से संबंधित क्षेत्र में कार्यरत हो, से मिलकर उसके सहयोग से बच्‍चे के विकास व भविष्‍य निर्माण में अपना योगदान दें, साथ ही साथ परिवार के अन्‍य सदस्‍यों को भी बच्‍चे के प्रति सहज व्‍यवहार के लिए प्रेरित करें।  इससे विकलांग बच्‍चे में हीन भावना नहीं आएगी और थोड़ी-बहुत आ भी जाती है तो बालक को प्‍यार व सहयोग से दैनिक कार्य सीखने के लिए प्रोत्‍साहित कर उसे धीरे-धीरे स्‍वावलंबी बनाएँ।  इससे उसके मन में उत्‍पन्‍न हीन भावना स्‍वत: समाप्‍त हो जाएगी।  उसमें अच्‍छी आदतों के विकास के लिए जैसे अपने सामान को यथास्‍थान रखना, खेल के स्‍थान को साफ-सुथरा रखना, नहाना, दाँत साफ करना आदि कार्य जो सामान्‍य बच्‍चे करते हैं, सिखाएँ और उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करें, जिससे वह कार्य करने में रुचि ले। 
विकलांग बालकों को सिखाते समय उपयुक्‍त सामग्री अवश्‍य उपलब्‍ध हो, इससे बालक इन कामों को शीघ्र सीखता है।  जैसे अगर हम उसे किसी जानवर के विषय में बता रहे हैं तो हमें उस जानवर को या उसका चित्र बच्‍चे को दिखाना चाहिए।  माता-पिता अपना खाली समय उसके साथ खेलने, बातचीत करने व नए-नए कार्य सिखाने में व्‍यतीत करें।

Thursday, 4 July 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 5 July, 2019 at YouTube


    महोदय, मुझे खेल-प्रेमी नगर कोलकाता में नेताजी सुभाष राष्‍ट्रीय खेल संस्‍थान के पूर्वी केंद्र के उद्घाटन समारोह के अवसर पर आप लोगों के बीच आकर बड़ी प्रसन्‍नता हुई है।  यह केंद्र देश में और विशेष रूप से देश के पूर्वी भाग में खेलकूद को बढ़ावा देने का कार्य करेगा।  कितनी अच्‍छी बात है कि हमारे सम्‍मानित प्‍यारे नेता स्‍वर्गीय नेताजी सुभाष के नाम पर इस संस्‍थान की स्‍थापना की गई है, और उनके जन्‍म दिन 23 जनवरी को ही इस केंद्र का उद्घाटन किया जा रहा है।  नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपना सारा जीवन देश की स्‍वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया था।  त्‍याग और बलिदान की उनकी भावना से हम सबको और विशेष रूप से नौजवान पीढ़ी को प्रेरणा मिलती है।  नेताजी ने एक ऐसे मजबूत, संगठित और स्‍वतंत्र भारत का स्‍वप्‍न देखा था, जिसके लोग शारीरिक और दिमागी तौर पर तंदुरुस्‍त हों।  मुझे शक नहीं कि नेताजी सुभाष खेल संस्‍थान इस स्‍वप्‍न को पूरा करने का कार्य करेगा। 
    नेताजी सुभाष राष्‍ट्रीय खेल संस्‍थान की स्‍थापना 1961 में पटियाला में हुई थी, जिसका पिछले 32 वर्षों में काफी विकास हुआ है।  संस्‍थान ने अब तक पंद्रह हजार से अधिक कोच तैयार किए हैं और देश के राष्‍ट्रीय खेल संघों के खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देने में भी सहायता की है।  खेलों के मामले में देश के दक्षिणी प्रदेशों की विशेष आवश्‍यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ वर्ष पूर्व इसी दिन बंगलौर में इसके दक्षिणी केंद्र का उद्घाटन किया गया था।  मुझे पूरी आशा है कि कोलकाता में पूर्वी केंद्र की स्‍थापना से खेलों के क्षेत्र में संस्‍थान राष्‍ट्र के लिए उपयोगी सेवा कर सकेगा।  कुछ वर्ष पूर्व में, हमने नई दिल्‍ली में नौवें एशियाई खेलों का आयोजन किया था।  ये खेल काफी कामयाब रहे।  सारा राष्‍ट्र उन लोगों की सराहना करता है, जिन्‍होंने इन खेलों के आयोजन के लिए काम किया था।  नेताजी सुभाष राष्‍ट्रीय संस्‍थान ने भी अंतर्राष्‍ट्रीय महत्‍व के इस काम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
    इन खेलों में हमारी टीमों और खेल प्रतियोगियों ने पहले से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया।  हमारे खिलाड़ियों ने इन खेलों में 57 मैडल जीते जब कि 1978 में बैंकाक में हुए पिछले एशियाई खेलों में उन्‍हें 28 मैडल ही मिले थे।  इस के लिए खेल-विभाग, नेताजी सुभाष राष्‍ट्रीय खेल संस्‍थान, राष्‍ट्रीय खेल संघ तथा भारतीय ओलम्पिक संघ बधाई के पात्र हैं।  



Sunday, 30 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 1 July, 2019 at YouTube


     अध्‍यक्ष महोदय, जब कुछ वर्ष पूर्व परिषद की बैठक श्रीनगर में हुई, तो उस पर उन सांप्रदायिक दंगों की याद मंडरा रही थी जो कुछ ही समय पहले हो चुके थे । इसलिए हमने परिषद के कार्यों के विभिन्‍न पक्षों की चर्चा की, हमारा प्रयास मुख्‍यत: संकीर्ण अर्थों में सांप्रदायिकता से यानी सांप्र‍दायिक हिंसा से निपटने तक सीमित रहा।  हम जानते हैं कि समाज में तनावों के कई कारण होते हैं : सांस्‍कृतिक, आर्थिक और सामाजिक।  इन्‍हें दूर करना होता है।  हमें उनको कुरूपता और हिंसा की सीमा तक बढ़ने से रोकना होता है।  अल्‍पसंख्‍यकों की भलाई की चिंता करते रहना हम सब का विशेष कर्तव्‍य होना चाहिए।  यही कारण है कि हमने इसका उल्‍लेख अपने चुनाव घोषणापत्र में तथा अन्‍य अवसरों पर किया और इन वचनबद्धताओं को कार्यन्वित करना होगा।  इसको करने का एक तरीका यह है कि राष्‍ट्रीय एकता की संपूर्ण धारणा को व्‍यापकता प्रदान की जाए ।
   इसके लिए सरकारी स्‍तर पर समुचित उपाय करने पर विचार किया जा रहा है और जो भी व्‍यवस्‍था की जाएगी, उसका एक मुख्‍य काम अल्‍पसंख्‍यकों की विशेष समस्‍याओं और हितों को देखना होगा।  यद्यपि मैंने ‘’अल्‍पसंख्‍यक’’ कहा, जैसाकि मैं पहले कह चुकी हूँ, जब हमने परिषद का गठन किया था, तो हमारा आशय भारतीय नागरिकों, हरिजनों आदि के अधिकारों के पूरे क्षेत्र की ओर ध्‍यान देने का था।  हालाँकि उन पर गौर करने के लिए पृथक संगठन बने हुए हैं।  यह कहना सही नहीं है कि पिछले सारे वर्ष व्‍यर्थ चले गए, क्‍योंकि कुछ-न-कुछ तो किया ही गया है।  लेकिन यह सही है कि और भी कुछ किया जा सकता था और मुझे आशा है कि अब इन कामों में तेजी लाई जाएगी।  उदाहरण के लिए, हम सेवाओं के पूरे प्रश्‍न पर गौर करते रहे हैं। ऐसी बहुत-सी बातें सामने नहीं आ पातीं।  लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि कोई उपेक्षा बरती जा रही है।  उन पर गौर किया जा रहा है । उन पर राष्‍ट्रीय एकता परिषद ने विचार नहीं किया था, लेकिन गृह मंत्रालय कर रहा है।
   मैं सहमत हूँ कि और भी बहुत कुछ किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।  हम यह करेंगे इसका एक भाग उर्दू भाषा है।  इस विषय में भी मैंने अपने विचार साफ तौर पर बता दिए हैं।  इस प्रश्‍न पर मुख्‍यमंत्रियों से विचार-विमर्श किया है।

Thursday, 27 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 28 June, 2019 at YouTube


अध्‍यक्ष महोदय, केंद्र-राज्‍य संबंधों को बेहतर बनाने के नाम पर कई सुझाव और योजनाएँ प्रस्‍तुत की गई हैं।  यह विचार करना माननीय सदस्‍यों और निस्‍संदेह मुख्‍यमंत्रियों का काम है कि क्‍या उनसे केंद्र-राज्‍य सहयोग सुदृढ़ होगा या वे विवाद की कोई गाँठ डालेंगे, या उनसे देश की एकता मजबूत होगी, या विभाजक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा।  जो भी समस्‍याएँ विद्यमान हैं या भविष्‍य में हो सकती हैं, उन्‍हें तर्क-वितर्क या टकराव द्वारा नहीं, बल्कि उनका संतोषजनक हल खोजने के लिए, उन्‍हें संयुक्‍त प्रयास से ही सुलझाया जा सकता है।  स्‍वाभाविक है कि कोई भी समाधान ऐसा नहीं है जो सभी पक्षों को पूर्ण संतोष दे सके।  लेकिन हमारी कोशिश यह देखने की होनी चाहिए कि व्‍यापक हितों को किस चीज से संभव बनाया जा सकता है।
   राज्‍यों के बारे में जब कभी ऐसा कोई प्रश्‍न उठता है, तो लोगों की भावनाएँ सरलता से भड़काई जा सकती हैं, विशेष रूप से, भाषा और धर्म के नाम पर या सीमा-विवाद को लेकर अथवा पृथक राष्‍ट्र के चमत्‍कृत करने वाले नारे के साथ।  इन सभी प्रश्‍नों का अधिकांशत: राजनैतिक पक्ष भी है, लेकिन उसका लाभ तभी उठाया जा सकता है जब वास्‍तव में किसी आर्थिक या अन्‍य शिकायत का कारण उपस्थित हो।  और यहाँ जो अनेक प्रश्‍न उठाए गए हैं, उनमें से अधिकांश मामलों में मुख्‍य बात है पिछड़े क्षेत्रों की आर्थिक अवस्‍था या विकास की।  इस दिशा में हम प्रयास करते रहे हैं और जहाँ-कहीं विकास के मामले में कोई उपेक्षा या देर हुई है, वहाँ स्थिति में सुधार के लिए जो कुछ भी संभव हो सकता है, करते रहे हैं। स्‍वाभाविक तौर पर तेलंगाना का संदर्भ आया है और उसके लिए भी हम कोशिश कर रहे हैं कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के क्रम में वहाँ के लोगों को आगे बढ़ाया जाए।
यह एहसास पाया जाता है कि इस प्रकार की भागीदारी को और मजबूत बनाया जाना चाहिए।  हम विभिन्‍न लोगों के साथ विचार-विनिमय करते रहे हैं।  मैं सहमत हूँ कि उस क्षेत्र में या अन्‍य क्षेत्रों में पाए जाने वाले विवादों को तेजी से हल किया जाना चाहिए।  कुछ सदस्‍यों ने समय-समय पर भड़क उठने वाले सांप्रदायिक दंगों के बारे में जो तीव्र भावना व्‍यक्‍त की, उसे हम समझे हैं और हम स्‍वयं इसे गहराई से अनुभव करते हैं। राष्‍ट्रीय एकता परिषद के कार्य पर भी विचार करना था।

Sunday, 23 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 24 June, 2019 at YouTube



श्रीमानजी, भारत-अमरीका संबंधों में एक नए साहसिक युग का सूत्रपात हो रहा है।  हमने कई क्षेत्रों में दोनों देशों में अभूतपूर्व सहयोग देखा है।  हाल ही में भारतीय सेना ने अमरीकी और संयुक्‍त राष्‍ट्र की सेनाओं के साथ सोमालिया में प्रहरी के रूप में कार्य किया।  विश्‍व‍व्‍यापी पर्यावरण संकट, अंतर्राष्‍ट्रीय आतंकवाद का सामना करने और अंतर्राष्‍ट्रीय मादक द्रव्‍यों के अवैध व्‍यापार की बाढ़ को रोकने के बारे में हमारे हित समान हैं।  इन क्षेत्रों में अमरीका और भारत ने मिलकर कार्य किया है।  फिर भी बहुत-से क्षेत्र हैं जिनमें और अधिक सहयोग की आवश्‍यकता है।  प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण रखने के उपयोगी साधन थे।  परंतु उनसे अब विकासशील देशों द्वारा अपने लोगों के जीवन स्‍तर को सुधारने के मार्ग में बाधा पड़ रही है।
अक्‍तूबर, 1949 में भारत के पहले प्रधानमंत्री, श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘’यह आवश्‍यक है, बल्कि वांछनीय है, और संभवत: अवश्‍यंभावी है कि भारत और अमरीका एक दूसरे को और अधिक समझें और एक दूसरे के साथ अधिकाधिक सहयोग करें।‘’ यह बात 1949 की है।  बाद में उसी वर्ष, प्रधानमंत्री श्री नेहरू ने भविष्‍यवाणी की कि अगले सौ वर्ष अमरीकी की शताब्‍दी होगी। ‘’प्रधानमंत्री ने सही कहा था।  20वीं शताब्‍दी अमरीकी शताब्‍दी के नाम से जानी जाएगी। अमरीका और भारत के पिछले 100 वर्षों के इतिहास में    भारत-अमरीका के संबंधों के उतार-चढ़ाव के दौरान नेहरूजी के शब्‍द सही सिद्ध हुए और दोनों देशों में मैत्री और विचारधारा के आधार पर उनके संबंध सुदृढ़ हुए। इस देश में भारतीय अमरीकियों ने जो सफलता प्राप्‍त की है, उससे पता चलता है कि विश्‍व के दो विशालतम लोकतंत्रों के बीच कितना विचार साम्‍य और एक दूसरे के प्रति कितना सम्‍मान है।
वर्तमान शताब्‍दी में भारत विश्‍व की समृद्धि एवं शांति में अपना योगदान देने की दिशा में कदम उठाने जा रहा है, हम अमरीका और अमरीकियों की चिरस्‍थायी भागीदारी के इच्‍छुक हैं।  भारत उन विकासशील देशों में से है जहाँ विकास की प्रक्रिया सुदृढ़ बन चुकी है।  हमने यह समझ लिया है कि कोई त्‍वरित मार्ग नहीं है, लोगों के पूर्ण सहयोग को प्राप्‍त करके कठिन परिश्रम में जुटने का कोई विकल्‍प नहीं है।  आँकड़ों के आधार पर भारत की जो उप‍लब्धियाँ हैं, कुछ लोगों ने उसकी सराहना की है।
(400 शब्‍द)
   श्रीमानजी, मैं कहना चाहूँगा कि यह बात अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण है।  भारत में 1950 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में शुरू किए गए सामुदायिक विकास कार्यक्रम में शुरू से सक्रिय रहने वाले एक अनुभवी कार्यकर्ता की स्थिति से मैं उन कठिनाइयों को साफ-साफ याद कर सकता हूँ जो हमारे विकास के मार्ग में आईं, जिनके लिए बहुत-से लोगों ने हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली को दोषी ठहराया।  बहुत-से विद्वानों और विशेषज्ञों, जिनमें कुछ इस देश के भी हैं, ने हमसे कहा कि लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था के अंतर्गत विकास करने के प्रयास में हम एक असंभव कार्य कर रहे हैं और असफलता तथा निराशा के सिवाय हमारे हाथ कुछ नहीं लगेगा।  बहुधा यह कहने का एक फैशन-सा हो गया कि लोकतंत्र विकास का विरोधी है और विकासशील देशों के लिए, उनके विकास के शुरू के चरणों में, यह अनुकूल नहीं होता।  यहाँ इस बात का उल्‍लेख भी किया जा सकता है कि उन वर्षों में बहुत-से देश पहले विकास करने के नाम पर, लोकतांत्रिक प्रणाली से हट गए थे।  ये सब तथ्‍य हैं।
   मैं केवल इतिहास नहीं बता रहा।  मैं इस भव्‍य सभा को बताना चाहूँगा कि विश्‍व भर में लोकतंत्र का एजेंडा अभी समाप्‍त नहीं हुआ है।  संभवत: इस प्रणाली के सिद्धांत को सर्वत्र स्‍वीकार किया जाता है परंतु यह स्‍वीकृति भी बिना शर्त नहीं है।  अंतत: किसी भी प्रणाली का बना रहना और उसका स्‍वीकार किया जाना इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें लोगों का भला करने की कितनी क्षमता है।  यह बात शायद उन देशों पर लागू न हो जहाँ लोकतंत्र जीवन का एक अंग बन चुका है और राजनैतिक प्रक्रिया सदियों से अपनी जड़े जमा चुकी हैं – जिसके फलस्‍वरूप वहाँ यह प्रणाली आम बात बन गई है व उस पर किसी की आपत्ति नहीं है।  परंतु अन्‍यत्र तत्‍काल लाभ के लिए इसमें काँट-छाँट करने का लालच और लोकतंत्र का स्‍वांग रचने की प्रवृत्ति, जबकि वास्‍तविक सत्‍ताधीश इसे मुखौटे के रूप में प्रयोग कर रहे हों - इन बातों पर इस प्रणाली के वास्‍तविक समर्थकों को बैठकर सोचना चाहिए।
   इस समय इस विषय पर अनेक विचार सुनाई देते हैं, इसलिए शायद इनके बीच मेरा यह विचार समरस न हो।  मैं समझता हूँ कि विश्‍व का आधारभूत और सबसे अधिक आवश्‍यक कार्य लोकतंत्र को सुदृढ़ और सशक्‍त बनाना होगा।

Thursday, 20 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 21 June, 2019 at YouTube












     

उपसभापति जी, मुझे इस बात पर दृढ़ विश्‍वास है कि विश्‍व को विनाशकारी आयुधों से मुक्‍त कराने का मार्ग एक ऐसी विश्‍वव्‍यापी व्‍यवस्‍था के निर्माण में निहित है जो सुरक्षा के रूप में समानता एवं निष्‍पक्षता के सार्वभौम सिद्धांतों पर आधारित हो।  वर्तमान शताब्‍दी में विश्‍व के राष्‍ट्र इसका जो समाधान अपनाएँगे वही आने वाली शताब्‍दी में विश्‍व की नियति को निर्धारित करेगा।  नाभिकीय आयुधों के परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने और नाभिकीय आयुधों के काम आने वाली विखंडनीय सामग्री के उत्‍पादन पर रोक लगाने के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय सहमति प्राप्‍त करने की दिशा में प्रगति हुई है।  इस अंतर्राष्‍ट्रीय सहमति के लिए भारत और अमरीका ने मिलकर काम किया है।  इन उपलब्धियों को ठोस रूप देने के लिए विनाभिकीकरण की दिशा में और अधिक सार्थक कदम उठाए जाने चाहिए तथा आज अंतर्राष्‍ट्रीय परिस्थितियों में ऐसा संभव है।   हमें बहुत कुछ और करना है।  हमारा उद्देश्‍य है नाभिकीय आयुधों से मुक्‍त विश्‍व।  इस बीच जहाँ एक ओर नाभिकीय निरस्‍त्रीकरण के लिए गंभीर बहुपक्षीय वार्ताएँ चलें, वहीं सावधानी के तौर पर, लघु अवधि के लिए नाभिकीय आयुध का ‘‘पहला प्रयोग नहीं’’ समझौता, बल्कि वास्‍तव में नाभिकीय आयुधों के प्रयोग पर रोक लगाना आवश्‍यक है।  सार्वभौम विधि और संविधान की भावना के अनुरूप इन राज्‍यों का संघ चिरस्‍थायी है।  सभी राष्‍ट्रों के मूलभूत कानून में भले ही यह व्‍यक्‍त न की गई हो, चिरस्‍थायित्‍व निहित है।  यह बेहिचक कहा जा सकता है कि किसी भी सुगठित सरकार ने अपने कानून में स्‍वयं की समाप्ति का प्रावधान नहीं रखा।  भौतिक रूप से हम अलग नहीं हो सकते।  हम अपने विभिन्‍न अंगों को अलग नहीं कर सकते, न ही उनके बीच एक अलंघ्‍य दीवार खड़ी कर सकते हैं। पति और पत्‍नी का तलाक हो सकता है और वे एक दूसरे से दूर और इतना दूर जा सकते हैं कि वे एक दूसरे से मिल न सकें।  किंतु हमारे देश के विभिन्‍न भाग ऐसा नहीं कर सकते।  उन्‍हें तो आमने-सामने ही रहना होगा और उनमें आपसी आदान-प्रदान चलता ही रहेगा, चाहे वह सौहार्द्रपूर्ण भाव से हो या विरोधी भाव से।यह राष्‍ट्रों का उत्‍तरदायित्‍व है कि वे वर्ण, धर्म अथवा जाति का ध्‍यान किए बिना कानून के अंतर्गत अपने सभी नागरिकों के जीवन और स्‍वतंत्रता की रक्षा करें।  जैसे आप अमरीका के इस महान लोकतंत्र में करते हैं, हम भी अपने यहाँ व्‍यावहारिक रूप में भारत में दृढ़प्रतिज्ञ हैं।

Tuesday, 18 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 19 June, 2019 at YouTube


   उपसभापति जी, भारत ने अगली पीढ़ी के लिए हमारे इतिहास के निर्माण के लिए पहला कदम उठा लिया है।  दशकों से चली आ रही केंद्रीयकृत आर्थिक नीतियों के उपरांत, भारत ने हाल में एक सुधार कार्यक्रम शुरू किया है जिससे हमारी अर्थव्‍यवस्‍था का आधुनिकीकरण, व्‍यापार व उदारीकरण और आर्थिक क्षमता का पूरा उपयोग हो सके।  हमने निजी निवेश और प्रतियोगिता का स्‍वागत किया है और खुले बाजार के विकास को बढ़ावा दिया है।  इसके फलस्‍वरूप, भारत विश्‍व में स्‍पर्धा में टिकने में सक्षम हुआ है और हमारे नागरिकों का जीवन स्‍तर धीरे-धीरे ऊँचा उठ रहा है।  इन सुधारों की गति से भारत वर्तमान शताब्‍दी में विश्‍व के अकेले सबसे बड़े खुले बाजार के रूप में उभरेगा।
   संभवत: भारत के महत्‍वाकांक्षी आर्थिक सुधार कार्यक्रम की सबसे उल्‍लेखनीय विशेषता यह है कि बड़े ही सहज ढंग से एक बंद और संरक्षित अर्थव्‍यवस्‍था, एक खुली निर्यातोन्‍मुख अर्थव्यवस्‍था के रूप में बदली है।  तीन वर्षों की अल्‍प अवधि में दूरगामी परिर्वतन किए गए हैं।  इसके साथ ही सामाजिक व्‍यवस्‍था पर पड़ने वाले गंभीर परिणामों के निराकरण के लिए तत्‍काल कारगर कदम उठाए गए हैं।  इन कदमों तथा आमतौर पर भारत की विभिन्‍न राजनैतिक विचारधाराओं की सहमति के फलस्‍वरूप, इस सुधार प्रक्रिया को अपनी एक विशिष्‍ट गति मिली है।
   भारत में हो रहे इन परिवर्तनों का भारत-अमरीकी आर्थिक संबंधों पर काफी प्रभाव पड़ा है और इनसे दोनों देशों को लाभ हुआ है।  नए आर्थिक संबंध बनाने के क्षेत्र में अमरीकी फर्में अग्रणी रही हैं।  भारत का विशाल घरेलू बाजार, विशाल शिक्षित, कुशल और अर्ध-कुशल श्रम शक्ति, सुदृढ़ वित्‍तीय संस्‍थाएँ और समय की कसौटी पर जाँची-परखी जाती लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था इन सबने मिलकर अग्रगामी कंपनियों को निवेश के विशाल अवसर प्रदान किए हैं।  वर्तमान शताब्‍दी के लिए अपने इतिहास की रचना करते समय हमें विभिन्‍न देशों के साथ और अधिक व्‍यापार की ओर ध्‍यान देना होगा।  पिछली आधी शताब्‍दी की एक दुभाग्‍यपूर्ण घटना दुनिया में विनाशकारी आयुधों का निर्माण है।  नाभिकीय आयुधों के प्रसार के कठिन और जटिल प्रश्‍न पर प्रभावकारी ढंग से तभी विचार किया जा सकता है जब उनकी विश्‍वव्‍यापी संहार क्षमता पर विचार करें और इसी तरह इनके विश्‍वव्‍यापी समाधान भी खोजें।  प्रत्‍येक राष्‍ट्र, चाहे बड़ा हो या छोटा, संप्रभुता-संपन्‍न होता है।

Sunday, 16 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 17 June, 2019 at YouTube


    उपाध्यक्ष महोदय, हमारे देश में पंचायती राज का कितना महत्व है, इसे सभी जानते हैं क्योंकि इसका हजारों वर्ष पुराना इतिहास रहा है।  विकेंद्रीकृत जनतांत्रिक कार्य प्रणाली ने निश्चय ही हमारे देश में सफलतापूर्वक काम किया है और आज भी, जहाँ पंचायतों का शासन स्थापित है वहाँ पर भी यह प्रणाली पर्याप्त सार्थक है।  साथ ही यह मजबूत तथा प्रभुत्वकारी है।  विशेष रूप से भारत जैसे देश में, जहाँ संचार-व्यवस्था इतनी जर्जर हो, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।  यहाँ स्थानीय स्तर पर विकेंद्रकरण बहुत ही आवश्यक है।
   यद्यपि हमारे संविधान के निर्माताओं ने देश के लिए पंचायती राज प्रणाली की कल्पना की थी।  इसे अस्तित्व में लाने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गई।  हमने समय-समय पर पंचायत के चुनाव कराए लेकिन संसद सदस्यों, राज्यों के विधायकों, मंत्रियों और मुख्यमंत्री के बीच सत्ता के वितरण के प्रश्न पर आपसी हितों की जो टकराहट होती रही, उससे पंचायती राज व्यवस्था का कारगर ढंग से कार्यान्वयन करने में बहुत बड़ी बाधा पड़ी।  यही कारण है कि पंचायतों के चुनाव कभी बाढ़ का बहाना लेकर तो कभी सूखे को आधार बनाकर प्रायः टाले जाते रहे जबकि इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि कोई भी सही अर्थों में सत्ता में हिस्सेदारी को पसंद नहीं करता था।  हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पहली बार यह अनुभव किया कि अगर पंचायतों का काम-काज पूरी तरह राज्यों पर छोड़ दिया गया तो संभवतः कभी भी पंचायती राज को व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सकेगा।
   कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने पंचायत कानून का अच्छा रूप प्रस्तुत किया।  इस राज्य में चुनाव भी हुए लेकिन जब सत्ता को नीचे तक ले जाने की बात आई तो राज्य के शक्तिशाली मंत्रियों और विधायकों ने राज्य के पंचायत अधिनियम में व्यक्त उद्देश्यों के अनुरूप सत्ता को नीचे तक ले जाने से मुख्यमंत्री को रोक दिया।  संवैधानिक संशोधन के बाद अब यह सभी राज्यों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे हर पाँच वर्ष बाद पंचायत के चुनाव कराएँ और कानून अनुसार सत्ता को नीचे के स्तर तक ले जाएँ।  जिस समय यह संविधान संशोधन पारित हुआ, मैं एक सांसद था और सौभाग्यवश मैं उस समिति का सदस्य भी था, जिसने इस संशोधन को तैयार किया था। बहुत-सी बातें राज्यों को तय करने के लिए छोड़ दी गई है।
(400 शब्‍द)
   उपाध्‍यक्ष महोदय, मेरी व्‍यक्तिगत राय है कि सत्‍ता और अधिकार के संबंध में और भी अधि‍क स्‍पष्‍ट विभाजन रेखा होनी चाहिए थी ताकि राज्‍य सरकारों को बचाव का कोई रास्‍ता न मिल सके।  लेकिन इस प्रस्‍ताव पर विचार करने का काम लोकसभा का है।  मध्‍य प्रदेश जैसे राज्‍य में 30 हजार पंचायतों और दो लाख से अधिक पंचों का चुनाव कराना बहुत बड़ा काम था।  हमने अपना चुनाव आयोग और वित्‍त आयोग बनाया लेकिन लेागों ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में हमें पर्याप्‍त महिला उम्‍मीदवार नहीं मिल सकेंगी।  राजीव गांधी ने गाँव की श्रेणीबद्ध प्रथा को ठीक ही देखा था कि गाँवों में कमजोर वर्ग के लोग कभी भी उस स्‍तर पर सत्‍ता में भागीदारी का अवसर नहीं पा सकेंगे ।
हमारे सामने एकमात्र विकल्‍प यह था कि महिलाओंअनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए सीटें सुरक्षित कर दें।  इसलिए हमने यह आरक्षण देने का काम शुरू किया लेकिन यह प्रश्‍न उठाया गया है कि किस प्रकार अलग-अलग चुनाव निशानों सहित चार अलग-अलग पेटिकाओं में एक निरक्षर ग्रामीण यह जान सकेगा कि पंच के लिए हवाई जहाज के निशान पर, सरपंच के लिए डोल्‍ची के निशान पर, ब्‍लाक सदस्‍य के लिए बैलगाड़ी के निशान पर वोट डाला जाए।  फिर भी हम अपने कार्यक्रम के अनुसार चलते रहे।  हमारे पास अलग-अलग रंगों के मतपत्र थे और आश्‍चर्य है कि मतदाताओं को अपनी पंसद के उम्‍मीदवार का चयन करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।  हालाँकि इस चुनाव में कुछ पैनल भी थे।  प्रत्‍येक शक्तिशाली व्‍यक्ति के पास पंच से लेकर जिला परिषद सदस्‍य का अपना पैनल था। 
   इस घटना से भारतीय मतदाता की परिपक्‍वता का पता चलता है।  इससे यह पता चलता है कि एक निरक्षर भारतीय नागरिक के पास सामान्‍य समझ और प्रतिभा की कमी नहीं है।  हमने प्रक्रिया जारी रखी और चुनाव संपन्‍न हुए।  जब सत्‍ता के हस्‍तांतरण की बात आई तो उन वर्गों ने, जो पंचायतों के साथ सत्‍ता की हिस्‍सेदारी में हिचकिचाहट दिखा रहे थे, इस विषय को फिर उठाया और राज्‍य मंत्रिमंडल की बैठक शुरु होने से एक दिन पूर्व मेरे कुछ सहकर्मी मेरे पास आए और उन्‍होंने पूछा – क्‍या आप सचमुच इन मामलों के प्रति गंभीर हैं? मैंने कहा, “यह एक ऐसा वचन है जो हमने स्‍वयं ही किया है और इससे पीछे हटने का प्रश्‍न ही पैदा नहीं होता