महोदय, शायद विकास की समस्या का यह एक सटीक उदाहरण है, एक ऐसे विकास का जो अब तक
हुए विकास को तथा उस विरासत को भी सुरक्षित रखे,
जिस पर उसकी नींव रखी गई। आज के सरल विकल्प कल हमारे लिए पश्चाताप का
कारण बन सकते हैं। इसलिए एक और महत्वपूर्ण
क्षेत्र जिसमें भारत व अमरीका, हमारे लोग, सहयोग कर सकते हैं, ऐसी प्रौद्योगिकियों का पता लगाना है जिनसे दायित्वपूर्ण
ढंग से विकास किया जा सके। माननीय उपराष्ट्रपति
जी, दो
वर्ष पहले आपने एक पुस्तक लिखी थी, जिसे एक समालोचक ने एक राजनीतिज्ञ का विलक्षण
योगदान माना था, क्योंकि वह पुस्तक आपने स्वयं लिखी थी, उसे पढ़ते समय, मेरे अंदर न केवल आपकी
लेखन शैली के बल्कि आपकी विषय-वस्तु के कारण भी रुचि पैदा हुई। उसमें मैंने महात्मा गांधी के बारे में एक ऐसा
दृष्टांत पढ़ा जिससे मैं पहले परिचित नहीं था।
आज उसे दोहराने की आवश्यकता है और मुझे आशा है कि आप मुझे इसकी अनुमति देंगे। आपने लिखा है कि गांधी जी के पास एक महिला
पहुँची जो इस बात से परेशान थी कि उसका पुत्र बहुत अधिक शक्कर खाता है। उस महिला ने गांधी से अनुरोध किया कि आप मेरे
पुत्र को शक्कर की हानियों के बारे में समझाएँ।
महात्मा गांधी ने ऐसा करने का वचन दिया पर एक पखवाड़े के बाद आने के लिए
कहा। उस महिला ने वैसा ही किया और गांधी
जी ने अपने वचन के अनुसार उस लड़के को सलाह दी।
माँ ने उसके प्रति बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया लेकिन वह अपनी इस उलझन को
छिपा न सकी कि आखिर गांधी जी ने क्यों मुझे दो सप्ताह बाद आने के लिए कहा। गांधी ने बड़ी ईमानदारी से उत्तर दिया: “मुझे स्वयं शक्कर खाना
छोड़ने के लिए दो सप्ताह की आवश्यकता थी।”
हम अब एक ऐसी शताब्दी
के समापन वर्षों में हैं जिसने युद्ध की विनाश लीला देखी है, जो मानव की वैज्ञानिक, बौद्धिक और रचनात्मक
सफलताओं से गौरवांवित हुई है, जो कमी और निर्धनता से ग्रस्त रही है फिर भी जो हमारी सामूहिक
क्षमता के बल पर ऐसे समाधान ढूँढने में सफल रही है जो अब तक हमें नहीं मिले थे। हम उन समाधानों को मानते हैं। परंतु किसी और को उन्हें अपनाने के लिए कहने
से पहले हमें, गांधीजी की तरह उन पर पालन करने के लिए कम-से-कम दो या तीन सप्ताह
का समय लेना पड़ेगा।
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