स्पीकर
महोदय, यह सदन निस्संदेह हमारी विदेश नीति और विदेशी मामलों के बहुत-से पहलुओं में
दिलचस्पी रखता है और इस बारे में भी कि भारत पर इसका क्या असर पड़ता है। संभवतः आज जो बहस होने वाली है उसमें इन बहुत-सी
बातों के बारे मैं ध्यान खींचा जाएगा। लेकिन महोदय मैं आपकी अनुमति और इस सदन की सहमति
से विदेशी मामलों और विदेश नीति और उनका भारत पर क्या-क्या असर पड़ता है और हम
इनको किस दृष्टि से देखते हैं, इन चीजों के सामान्य पहलुओं के बारे में कुछ कहना
चाहूँगा और मुख्य समस्या की छोटी-छोटी बातों में नहीं जाऊँगा। इससे भी पहले मैं केवल विदेशी मामलों में ही
नहीं बल्कि स्वयं भारत के बारे में कुछ आम बातें कहूँगा। पिछले कुछ दिनों में बजट प्रस्तावों के सिलसिले
में बहुत कुछ नुक्ताचीनी की गई और कम या ज्यादा जोर के साथ सरकार की असफलताएँ बताई
गई हैं। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैं हर तरह की आलोचना का स्वागत करता हूँ और मैं
इस बात पर विश्वास करता हूँ कि अगर यह सदन सिर्फ एक गतिहीन सदन, दब्बू सदन या ऐसा
सदन जो हर सरकारी चीज की हाँ-में-हाँ मिलाने वाला सदन हो जाए, तो यह मेरे विचार से
दुर्भाग्यपूर्ण होगा। हमेशा चौकन्ना रहना
ही स्वतंत्रता की कीमत है और इस सदन के हर सदस्य को हर समय जागृत व चौकन्ना रहना
है। हाँ, सरकार को भी चौकस रहना चाहिए। लेकिन जो लोग सत्ताधारी होते हैं, उनमें लापरवाह
प्रवृत्ति रहती है, इसलिए मैं अपनी तरफ से इस सदन के माननीय सदस्यों की चौकसी का
स्वागत करता हूँ, जिन्होंने सरकार की हर गलती, असफलता या कमी की तरफ हमारा ध्यान
खींचा है।
मैं
आशा करता हूँ कि यहाँ की आलोचना अच्छी भावना से दोस्ती के तरीकों से की गई है और
वह सरकार की ईमानदारी को चुनौती देती है। हाँ, अगर सरकार की अच्छी भावना को भी चुनौती
देने की इच्छा हो तो भी मैं उसमें विरोध नहीं करूँगा, बशर्ते, यह स्पष्ट हो कि यही
चीज विचाराधीन है। इस आलोचना को सुनते हुए
या उसके बारे में पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा कि शायद हम लकड़ी की तुलना में पेड़ों की
तरफ ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। पिछले 18
महीनों में जो-कुछ हुआ है उस पर और भारत की सारी तस्वीर पर गौर नहीं कर रहे। जहाँ तक आप निष्पक्ष रूप से देख सकते हैं अवश्य
देखिए।
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