Sunday, 16 June 2019

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 17 June, 2019 at YouTube


    उपाध्यक्ष महोदय, हमारे देश में पंचायती राज का कितना महत्व है, इसे सभी जानते हैं क्योंकि इसका हजारों वर्ष पुराना इतिहास रहा है।  विकेंद्रीकृत जनतांत्रिक कार्य प्रणाली ने निश्चय ही हमारे देश में सफलतापूर्वक काम किया है और आज भी, जहाँ पंचायतों का शासन स्थापित है वहाँ पर भी यह प्रणाली पर्याप्त सार्थक है।  साथ ही यह मजबूत तथा प्रभुत्वकारी है।  विशेष रूप से भारत जैसे देश में, जहाँ संचार-व्यवस्था इतनी जर्जर हो, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।  यहाँ स्थानीय स्तर पर विकेंद्रकरण बहुत ही आवश्यक है।
   यद्यपि हमारे संविधान के निर्माताओं ने देश के लिए पंचायती राज प्रणाली की कल्पना की थी।  इसे अस्तित्व में लाने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गई।  हमने समय-समय पर पंचायत के चुनाव कराए लेकिन संसद सदस्यों, राज्यों के विधायकों, मंत्रियों और मुख्यमंत्री के बीच सत्ता के वितरण के प्रश्न पर आपसी हितों की जो टकराहट होती रही, उससे पंचायती राज व्यवस्था का कारगर ढंग से कार्यान्वयन करने में बहुत बड़ी बाधा पड़ी।  यही कारण है कि पंचायतों के चुनाव कभी बाढ़ का बहाना लेकर तो कभी सूखे को आधार बनाकर प्रायः टाले जाते रहे जबकि इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि कोई भी सही अर्थों में सत्ता में हिस्सेदारी को पसंद नहीं करता था।  हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने पहली बार यह अनुभव किया कि अगर पंचायतों का काम-काज पूरी तरह राज्यों पर छोड़ दिया गया तो संभवतः कभी भी पंचायती राज को व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सकेगा।
   कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों ने पंचायत कानून का अच्छा रूप प्रस्तुत किया।  इस राज्य में चुनाव भी हुए लेकिन जब सत्ता को नीचे तक ले जाने की बात आई तो राज्य के शक्तिशाली मंत्रियों और विधायकों ने राज्य के पंचायत अधिनियम में व्यक्त उद्देश्यों के अनुरूप सत्ता को नीचे तक ले जाने से मुख्यमंत्री को रोक दिया।  संवैधानिक संशोधन के बाद अब यह सभी राज्यों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे हर पाँच वर्ष बाद पंचायत के चुनाव कराएँ और कानून अनुसार सत्ता को नीचे के स्तर तक ले जाएँ।  जिस समय यह संविधान संशोधन पारित हुआ, मैं एक सांसद था और सौभाग्यवश मैं उस समिति का सदस्य भी था, जिसने इस संशोधन को तैयार किया था। बहुत-सी बातें राज्यों को तय करने के लिए छोड़ दी गई है।
(400 शब्‍द)
   उपाध्‍यक्ष महोदय, मेरी व्‍यक्तिगत राय है कि सत्‍ता और अधिकार के संबंध में और भी अधि‍क स्‍पष्‍ट विभाजन रेखा होनी चाहिए थी ताकि राज्‍य सरकारों को बचाव का कोई रास्‍ता न मिल सके।  लेकिन इस प्रस्‍ताव पर विचार करने का काम लोकसभा का है।  मध्‍य प्रदेश जैसे राज्‍य में 30 हजार पंचायतों और दो लाख से अधिक पंचों का चुनाव कराना बहुत बड़ा काम था।  हमने अपना चुनाव आयोग और वित्‍त आयोग बनाया लेकिन लेागों ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में हमें पर्याप्‍त महिला उम्‍मीदवार नहीं मिल सकेंगी।  राजीव गांधी ने गाँव की श्रेणीबद्ध प्रथा को ठीक ही देखा था कि गाँवों में कमजोर वर्ग के लोग कभी भी उस स्‍तर पर सत्‍ता में भागीदारी का अवसर नहीं पा सकेंगे ।
हमारे सामने एकमात्र विकल्‍प यह था कि महिलाओंअनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए सीटें सुरक्षित कर दें।  इसलिए हमने यह आरक्षण देने का काम शुरू किया लेकिन यह प्रश्‍न उठाया गया है कि किस प्रकार अलग-अलग चुनाव निशानों सहित चार अलग-अलग पेटिकाओं में एक निरक्षर ग्रामीण यह जान सकेगा कि पंच के लिए हवाई जहाज के निशान पर, सरपंच के लिए डोल्‍ची के निशान पर, ब्‍लाक सदस्‍य के लिए बैलगाड़ी के निशान पर वोट डाला जाए।  फिर भी हम अपने कार्यक्रम के अनुसार चलते रहे।  हमारे पास अलग-अलग रंगों के मतपत्र थे और आश्‍चर्य है कि मतदाताओं को अपनी पंसद के उम्‍मीदवार का चयन करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।  हालाँकि इस चुनाव में कुछ पैनल भी थे।  प्रत्‍येक शक्तिशाली व्‍यक्ति के पास पंच से लेकर जिला परिषद सदस्‍य का अपना पैनल था। 
   इस घटना से भारतीय मतदाता की परिपक्‍वता का पता चलता है।  इससे यह पता चलता है कि एक निरक्षर भारतीय नागरिक के पास सामान्‍य समझ और प्रतिभा की कमी नहीं है।  हमने प्रक्रिया जारी रखी और चुनाव संपन्‍न हुए।  जब सत्‍ता के हस्‍तांतरण की बात आई तो उन वर्गों ने, जो पंचायतों के साथ सत्‍ता की हिस्‍सेदारी में हिचकिचाहट दिखा रहे थे, इस विषय को फिर उठाया और राज्‍य मंत्रिमंडल की बैठक शुरु होने से एक दिन पूर्व मेरे कुछ सहकर्मी मेरे पास आए और उन्‍होंने पूछा – क्‍या आप सचमुच इन मामलों के प्रति गंभीर हैं? मैंने कहा, “यह एक ऐसा वचन है जो हमने स्‍वयं ही किया है और इससे पीछे हटने का प्रश्‍न ही पैदा नहीं होता

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