अध्यक्ष
महोदय,
जब कुछ वर्ष पूर्व परिषद की बैठक श्रीनगर में हुई, तो उस पर उन सांप्रदायिक दंगों की याद मंडरा रही थी जो कुछ ही समय पहले हो
चुके थे । इसलिए हमने परिषद के कार्यों के विभिन्न पक्षों की चर्चा की, हमारा प्रयास मुख्यत: संकीर्ण अर्थों में सांप्रदायिकता से यानी सांप्रदायिक
हिंसा से निपटने तक सीमित रहा। हम जानते
हैं कि समाज में तनावों के कई कारण होते हैं : सांस्कृतिक, आर्थिक
और सामाजिक। इन्हें दूर करना होता
है। हमें उनको कुरूपता और हिंसा की सीमा
तक बढ़ने से रोकना होता है। अल्पसंख्यकों
की भलाई की चिंता करते रहना हम सब का विशेष कर्तव्य होना चाहिए। यही कारण है कि हमने इसका उल्लेख अपने चुनाव
घोषणापत्र में तथा अन्य अवसरों पर किया और इन वचनबद्धताओं को कार्यन्वित करना
होगा। इसको करने का एक तरीका यह है कि
राष्ट्रीय एकता की संपूर्ण धारणा को व्यापकता प्रदान की जाए ।
इसके लिए सरकारी स्तर पर समुचित उपाय करने पर
विचार किया जा रहा है और जो भी व्यवस्था की जाएगी, उसका एक
मुख्य काम अल्पसंख्यकों की विशेष समस्याओं और हितों को देखना होगा। यद्यपि मैंने ‘’अल्पसंख्यक’’
कहा, जैसाकि मैं पहले कह चुकी हूँ, जब हमने परिषद का गठन किया था, तो हमारा आशय भारतीय
नागरिकों, हरिजनों आदि के अधिकारों के पूरे क्षेत्र की ओर ध्यान
देने का था। हालाँकि उन पर गौर करने के
लिए पृथक संगठन बने हुए हैं। यह कहना सही
नहीं है कि पिछले सारे वर्ष व्यर्थ चले गए, क्योंकि
कुछ-न-कुछ तो किया ही गया है। लेकिन यह
सही है कि और भी कुछ किया जा सकता था और मुझे आशा है कि अब इन कामों में तेजी लाई
जाएगी। उदाहरण के लिए, हम सेवाओं के पूरे प्रश्न पर गौर करते रहे हैं। ऐसी बहुत-सी बातें सामने
नहीं आ पातीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं
होता कि कोई उपेक्षा बरती जा रही है। उन
पर गौर किया जा रहा है । उन पर राष्ट्रीय एकता परिषद ने विचार नहीं किया था,
लेकिन गृह मंत्रालय कर रहा है।
मैं सहमत हूँ कि और भी बहुत कुछ किया जा सकता
है और किया जाना चाहिए। हम यह करेंगे इसका
एक भाग उर्दू भाषा है। इस विषय में भी
मैंने अपने विचार साफ तौर पर बता दिए हैं।
इस प्रश्न पर मुख्यमंत्रियों से विचार-विमर्श किया है।
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