महोदय, राष्ट्रभाषा का ही क्रमिक रूप है राजभाषा। महात्मा गाँधी को ही यह श्रेय जाता है कि
राष्ट्र की कोई एक संपर्क भाषा हो - इस पर उन्होंने बल दिया था। हालाँकि गाँधीजी के राष्ट्रभाषा संबंधी आग्रह
के पीछे मुख्य रूप से राष्ट्रीयता तथा स्वतंत्रता आंदोलन की समग्रता थी।आज हिंदी, संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार
भारत की राजभाषा है, लेकिन व्यावहारिक रूप से उसकी जगह अंग्रेजी ही कार्यरत है। तो मैं बराबर गाँधीजी को याद करता हूँ। बापू ने आज 70-80 वर्षों पूर्व हिंदी के संबंध
में जो बातें कही थीं, वे आज भी सामयिक और सार्थक हैं। आज, जब हम हिंदी दिवस
समारोह मना रहे हैं तो एक बार पुनः गाँधीजी को ही सामने रखकर गंभीरता से विचार
करें कि राष्ट्रभाषा के संदर्भ में राष्ट्रपिता की चिंता को भी हमने महत्व नहीं
दिया। बजाय इसके कि यहाँ मैं अपनी ओर से
कुछ कहूँ, गाँधी के कहे को ही आपके सामने रखाना चाहता हूँ। काश ! आज भी राष्ट्र इसे
ग्रहण कर ले तो जहाँ एक ओर उसकी अस्मिता में चार चाँद लग जाएँ, वहीं राष्ट्रपिता
की आत्मा को भी शांति मिल जाए। इसीलिए
गाँधी जी का लिखा राष्ट्रभाषा संबंधी यह लेख यथावत मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
हमारी
भाषा हमारा ही प्रतिबिंब होती है, और यदि आप मुझसे यह
कहते हैं कि हमारी भाषाएँ अशक्त हैं, कि उनके द्वारा
सर्वोत्तम विचार व्यक्त नहीं किए जा सकते तो मैं यह कहूँगा कि हमारा अस्तित्व जितनी
जल्दी समाप्त हो जाए उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा। क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो कल्पना करता हो कि
अंग्रेजी कभी भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है? राष्ट्र पर यह मुसीबत क्यों डाली जाए? मुझे पूना के कुछ प्राध्यापकों के साथ घनिष्ठ
बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन्होंने
मुझे यह विश्वास दिलाया कि हर एक भारतीय युवक चूँकि वह अंग्रेजी भाषा के माध्यम से
शिक्षा पाता है, इसलिए अपने जीवन के कम से कम छह बहुमूल्य वर्ष व्यर्थ गँवा देता
है। इस संख्या में गुणा कीजिए और फिर
स्वयं यह पता लगाइए कि राष्ट्र ने कितने हजार वर्ष गँवा दिये हैं। हमारे ऊपर आरोप यह लगाया जाता है कि हमारे अंदर
आगे बढ़ने की शक्ति नहीं है। हमारे अंदर
वह शक्ति हो ही नहीं सकती है।
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