Saturday, 10 November 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 10 Nov., 2018 at Youtube


अफगानिस्तान में तालिबान के तख्ता पलट को 17 साल होने वाले हैं, लेकिन वहां की समस्या अभी तक सुलझी नहीं है। ओसामा बिन लादेन की मौत और जैसे-तैसे लोकतंत्र की बहाली के बावजूद अफगानिस्तान में शांति कायम होना अभी भी दूर की कौड़ी लगता है। यह भी सच है कि बीते कुछ समय में इस्लामिक स्टेट के तेजी से उभार के चलते अफगान समस्या से लोगों का ध्यान हट सा गया था, लेकिन अब जब वह उभार कुछ ठंडा पड़ा है, तो अफगानिस्तान एक बार फिर प्राथमिकता सूची में आ गया है। यह ठीक है कि पिछले तकरीबन डेढ़ दशक में शांति की सारी कोशिशें नाकाम रही हैं, इसलिए मास्को में जो ताजा वार्ता शुरू हो रही है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीद बांधने का कोई कारण नहीं है। लेकिन कोशिश का होना यह तो बताता है कि दुनिया के देशों ने अभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। इस वार्ता की खास बात यह है कि इसमें 12 देशों के प्रतिनिधियों के अलावा तालिबान के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे। यानी वह पक्ष भी शामिल होगा, जिसे वर्तमान समस्या और उसके गहराते जाने का कारण माना जाता है। लोकतांत्रिक सोच यही कहती है कि शांति वार्ताओं में सभी पक्षों को एक साथ बैठना चाहिए, भले ही उसमें से कोई एक अतिवादी क्यों न हो। 
लेकिन इस वार्ता ने भारत की विदेश नीति के लिए एक धर्मसंकट भी खड़ा किया है। भारत का स्टैंड अभी तक यह रहा है कि वह ऐसी किसी वार्ता में शामिल नहीं होगा, जिसमें तालिबान भी मौजूद हों। भारत ने इस नीति को बदला नहीं है, लेकिन नई दिल्ली ने मास्को सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने दो प्रतिनिधि जरूर भेज दिए हैं। भारत के दो अनुभवी पूर्व राजनयिक अमर सिन्हा और टीसीए राघवन इस सम्मेलन में भाग लेंगे। यह ऐसा फैसला है, जिसकी कुछ लोग आलोचना भी कर रहे हैं, लेकिन इस मामले में विदेश मंत्रालय ने जो रणनीति अपनाई है, उसे भी समझा जाना जरूरी है। भारत अगर इस सम्मेलन का बहिष्कार कर देता, तो यह माना जाता कि अफगान समस्या के समाधान में वह कोई भूमिका नहीं निभा रहा है। भारत उन देशों में है, जहां अफगान समस्या का सीधा असर पड़ा था, और बाद के दौर में अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण कार्यों में भी उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे में, यह जरूरी है कि अफगानिस्तान में शांति के किसी भी अंतर्राष्‍ट्रीय प्रयास में भारत के पक्ष को जोरदार तरीके से रखा जाए। सम्मेलन में भारत की भागीदारी को इसी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। भारत कभी ऐसा देश नहीं रहा, जो अतिवादी संगठनों से परहेज की जिद पर हर सूरत में अड़ा रहा हो। अतीत में भी हमने हथियार छोड़कर वार्ता की मेज पर आने वाले कई संगठनों से बातचीत की है। ऐसी ही एक वार्ता इन दिनों नगा विद्रोहियों से चल रही है।
इस समय जब पूरी दुनिया अफगान समस्या को नए ढंग से देख रही है, तो यह बात भी स्पष्ट हो रही है कि पूरे मामले में तालिबान से बड़ी खलनायकी पाकिस्तान की थी। हालांकि अमेरिका जैसे देशों की दिक्कत यह रही है कि उनकी अफगान नीति में पाकिस्तान हमेशा ही केंद्रीय भूमिका निभाता रहा है, इसलिए वे पाकिस्तान के सारे पाप माफ करते रहे हैं। यह वार्ता रूस में हो रही है, इसलिए यह पाकिस्तान की भूमिका के सवाल को उठाने का शायद सबसे अच्छा मौका भी है। भारतीय नजरिये का वार्ता में प्रतिनिधित्व इस लिहाज से भी जरूरी है।

Thursday, 8 November 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 09 Nov., 2018 at Youtube


तीन दिन बाद दंतेवाड़ा में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है, दीपावली के ठीक अगले दिन माओवादियों की बारूदी सुरंग ने जिस तरह चुनाव ड्यूटी पर लगे एक वाहन को उड़ाया, वह बताता है कि वहां कर्मचारी किस तरह जान जोखिम में डालकर चुनाव प्रक्रिया संपन्न कराने में लगे हैं। इस हमले में वाहन के परखचे उड़ गए और सुरक्षा बलों के जवानों समेत उसमें बैठे कई लोगों को जान गंवानी पड़ी। अभी कुछ ही दिनों पहले इसी क्षेत्र में चुनाव की रिपोर्टिंग करने गए मीडियाकर्मियों पर माओवादियों ने घात लगाकर हमला बोला था और इस हमले में एक पत्रकार की जान भी चली गई थी। ऐसा नहीं है कि खतरा सिर्फ चुनाव कार्य में लगे लोगों, सुरक्षा बलों या फिर चुनाव कवरेज के लिए गए लोगों पर ही मंडरा रहा है। खतरा चुनाव लड़ रहे या चुनाव प्रचार में लगे राजनीतिक दलों के लोगों पर भी है और सबसे बड़ी बात है कि खतरा उन आम लोगों पर भी है, जो तीन दिन बाद मतदान के लिए पोलिंग बूथों पर जाएंगे। माओवादियों ने पूरे क्षेत्र में चुनाव के बहिष्कार की अपील की है। इसके लिए उन्होंने परचे भी बांटे और पोस्टर भी लगाए हैं। माओवादियों की दिक्कत यह है कि ऐसा वे हर चुनाव में करते हैं और इसके बावजूद लोग वहां भारी संख्या में मतदान के लिए जाते हैं। ऐसे में, उनके सामने एक ही चारा बचता है कि वे आतंक पैदा करें, ताकि लोग मतदान के लिए घरों से निकलने में डरें। विस्फोट और हिंसा की ताजा घटनाएं माओवादियों की इसी हताशा का नतीजा है।
समस्या किस तरह की है, इसे चुनाव आयोग भी अच्छी तरह समझ रहा है और सरकारें भी। इसीलिए छत्तीसगढ़ में पहले दौर के मतदान के लिए सुरक्षा बलों के 65 हजार अतिरिक्त जवानों की तैनाती की गई है। माओवाद विरोधी अभियान के लिए इस क्षेत्र में केंद्रीय सुरक्षा बलों के जवान पहले से ही मौजूद हैं। पहले दौर के लिए जिन 18 सीटों पर 12 नवंबर को मतदान होना है, वे सब माओवाद प्रभावित क्षेत्र में ही हैं। इस पूरे क्षेत्र में सुरक्षा बलों की उपस्थिति काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सुरक्षा बलों की मौजूदगी से आश्वस्त होकर ही लोग घरों से निकलते हैं और मतदान के लिए जाते हैं। इसके अलावा, इन बलों के जवान राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं को भी सुरक्षा देते हैं और मीडियाकर्मियों को भी। इसीलिए आतंकवादी इस क्षेत्र में सुरक्षा बलों को ही सबसे पहले निशाना बनाते हैं।
यह लगभग तय है कि माओवादी इस बार भी मुंह की खाएंगे। हर बार की तरह इस बार भी लोग बड़ी संख्या में वोट देने निकलेंगे और अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देंगे। एक बार फिर जनमत उन बंदूकों को मात देगा, जो उन लोगों के ही खिलाफ खड़ी हैं, जिनकी लड़ाई लड़ने की बात नक्सली करते हैं। लोकतंत्र के साथ जंग में उनकी बंदूकें, उनकी बारूदी सुरंगें भले ही कुछ लोगों की जान ले रही हों, लेकिन वे लगातार हार रही हैं। देश के दूर-दराज के इलाकों में बच गया माओवाद अब कोई विचारधारा नहीं, एक जिद भर है। लोगों की जान लेने वाली जिद को ही आतंकवाद कहा जाता है। एक जिद का मुकाबला एक कड़े संकल्प से ही हो सकता है। इस आतंकवादी जिद को जड़ से उखाड़ने का संकल्प लेने का समय आ गया है। इसके दो ही रास्ते हैं, एक तो लगातार कड़ी कार्रवाई और दूसरे, लगातार ऐसा विकास, जिसका लाभ सभी तक पहुंचे। माओवादी इसीलिए विकास का भी विरोध करते हैं। 

Sunday, 21 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 21 Oct, 2018 at Youtube


महोदय, हमारी संघीय रचना और जनता द्वारा चलाए जाने वाले स्‍थानीय शासनतंत्र से और सत्‍ता के विकेंद्रीत प्रयोग से हमारी एकता सुदृढ़ हुई है।  कभी-कभी तनाव और असहमति होती है, किन्‍तु हमारे विकास की वर्तमान अवस्‍था में और विशेष रूप से इस कारण ऐसा होना अनिवार्य है कि हमारे पास इतने कम साधन हैं कि प्रत्‍येक को संतुष्‍ट नहीं किया जा सकता।  हमारे से छोटे देशों में भी अब क्षेत्रीय खींचातानी अनुभव की जा रही है।  इन स्थितियों में हमने अपने राष्‍ट्रीय पुनर्निर्माण का कार्य अपने हाथ में लिया।  अपनी पंचवर्षीय योजनाओं में, सामाजिक सुविधाएँ बढ़ाने, उद्योगों के लिए आवश्‍यक ढाँचा खड़ा करने और ऐसे बुनियादी उद्योग स्‍थापित करने का काम शासन ने  अपने जिम्‍मे लिया है, जिन्‍हें निजी उद्योग स्‍थापित नहीं कर सकते।  साथ ही निजी उद्योगों के लिए भी बड़ा क्षेत्र बचा है और स्‍वतंत्रता के बाद निजी उद्योगों के लिए बढ़ने की बहुत गुंजाइश है और वास्‍तव में इन्‍होंने इतनी अधिक उन्‍नति की है कि इन्‍हें पहचानना कठिन है।
   विकास से अंततोगत्‍वा सब वर्गों को सहायता मिलती है।  फिर भी, यह लगता है कि शुरू के चरणों में इसके कारण असमानताएँ बढ़ती हैं।  हमें इस तरह के असंतुलन ठीक करने के बारे में सदा सजग रहना चाहिए।  साथ ही आर्थिक कारणों के साथ-साथ सामाजिक कारणों पर भी ध्‍यान देना चाहिए।  इस स्थिति के कारण कई बार हमारी गति मंद पड़ जाती हैं।  किंतु युद्ध, प्राकृतिक आपत्तियों और अन्‍य कठिनाइयों के होते हुए भी हम आगे बढ़े हैं।  हमने अपने लोकतंत्र को सुदृढ़ किया है। हमारे साढ़े सात करोड़ बच्‍चे स्‍कूलों में पढ़ रहे हैं और लगभग बीस लाख विद्यार्थी कालेजों मे हैं।  हमारे देश में 50 करोड़ परिवार खेती करते हैं।  खेती ही हमारे लिए सबसे महत्‍वपूर्ण हैं।  पिछले 55 वर्षों में खेती के विकास के लिए आवश्‍यक ढाँचा स्‍थापित किया जा चुका है और 23 करोड़ एकड़ नई जमीन में सिंचाई होने लगी है।  हमारे किसान नए ढंग से खेती करने लगे हैं और उन्‍हें खेती के लिए आवश्‍यक चीजें दी जाने लगी हैं।  उनकी समस्‍याएँ हल करने के लिए वैज्ञानिकों की सहायता ली गई है और आज हम अन्‍न की दृष्टि से और सुदृढ़ हो गए हैं।  कृषि के सुधार के लिए, लोगों को रोजगार देने और स्‍वावलंबी बनाने के लिए हमें उद्योगों की आवश्‍यकता है।  उद्योगों का हमने तीन गुना विकास किया है और कर रहे हैं।

Monday, 15 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 15 Oct, 2018 at Youtube


          महोदय, जापान की यात्रा सदा ही सुखद होती है।  यहाँ इतना कुछ और इतनी तेजी से हो रहा है कि यहाँ बार-बार आकर यहाँ के लोगों और देश से बार-बार परिचय करने का महत्‍व है।  जापान की प्रगति की भारतवासी बहुत सराहना करते हैं।  युद्ध के बाद आपका अपने देश का पुनर्निर्माण और आपकी हाल की आर्थिक सफलताएँ असाधारण हैं, किंतु आपने जिस ढंग से अपनी राजनीतिक और सामाजिक प्रणाली का कायापलट किया है और लोकतंत्र की स्‍थापना की है वह भी कम महत्‍वपूर्ण नहीं।  मैं वर्तमान जापान की आत्‍मशक्ति के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करता हूँ।  हम भारतवासी आपकी सफलताओं को बड़ी दिलचस्‍पी से देखते हैं और इस प्रयत्‍न में रहते हैं कि आपके कौन-से अनुभव से हमें अपने प्रयत्‍नों में सफलता मिल सकती है।  कोई चीज भी दूसरे से पूरी की पूरी उधार नहीं ली जा सकती।  उसको लेकर आत्‍मसात करना होता है।  विज्ञान के सिद्धांत तो सार्वभौम हैं, लेकिन प्रौद्योगिकी लोगों के सामाजिक वातावरण के अनुकूल ढाली जानी चाहिए।
    जो लोग भारत के बाहर हैं, उनके लिए हमारे देश को समझना और हमारे प्रयत्‍नों की विशालता का अनुमान लगाना कठिन है। हमने आपसे बहुत बाद में शुरुआत की।  जब हम स्‍वतंत्र हुए तो हमारे देश के पाँच सौ से ऊपर राजनीतिक टुकड़े थे।  जनसंख्‍या बहुत अधिक थी।  भाषाओं और धर्मों की बहुतायत थी।  विभिन्‍न राज्यों में ही नहीं, एक ही राज्‍य के भिन्‍न-भिन्‍न भागों में विकास का स्‍तर भिन्‍न-भिन्‍न था।  इन सब बातों के कारण हमारी कठिनाइयाँ बहुत बढ़ गईं।  ऐसा विशेष रूप से इस कारण था कि हमने लोकतंत्रीय मार्ग अपनाया।
    पिछले आम चुनावों के बाद बहुत-से राजनीतिक दल उठ खड़े हुए हैं और एक राज्‍य में गैरकांग्रेसी दल का शासन है और पाँच राज्‍यों में कई दलों की संयुक्‍त सरकारें हैं।  हमने इन सब बातों को अपने राजनीतिक विकास का ही एक चरण माना है।  कुछ उग्रवादी दल हैं।  फिर भी अपने उद्देश्‍य और तौर तरीकों में वे चाहे जितने भिन्‍न हों, हमें उनके मत को इस तरह ढालना है कि वे भी देश की एकता और प्रगति में पूरी तरह भागीदारी कर सकें।  हमने अपने प्रयत्‍नों से पूरी ईमानदारी से भावनात्‍मक एकता और भागीदारी तो पैदा की है, लेकिन उसी से सशक्‍त स्‍थानीय परंपराएँ भी जन्‍मी हैं।  एकता का अर्थ एक-सा होना नहीं होता।   

Saturday, 13 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 13 Oct, 2018 at Youtube


     उपसभापति जी, हमारे विशेषज्ञों ने कहा है कि जिन देशों में पहले शिक्षा का विकास हुआ है वहाँ शेष विकास बड़ी सरलता से हुआ है और जिन देशों में शिक्षा का विकास नहीं हुआ, केवल पैसा मिलता रहा उनको, तो उसके कुछ और ही परिणाम हो सकते हैं। एक-एक देश का नाम लेकर बता सकता हूँ लेकिन देशों का नाम लेना ठीक नहीं है हमारे देश में पैसा बाद में आया।  जो बौद्धिक विकास है,  आर्थिक विकास है उसको पहली प्राथमिकता दी गई यह हमारे पुराने इतिहास से स्‍पष्‍ट है, और लोग भी इसको मानने लगे हैं कि जो प्राथमिकता भारत में ली गई है।  हमारे इतिहास के द्वारा वह सही है तो जब आप विकास की बात मानते हैं तो आपको अपनी प्राइमरी स्‍कूल की बात तो सोचनी ही चाहिए।  प्राइमरी स्‍कूल को कितने सरपंच देखते हैं।
    गाँवों को लोग देखते हैं उसके बारे में कोई भी आँकड़े रखते हैं मुझे याद है जब हम गाँवों में भाषण देने जाते थे तो प्राइमरी स्‍कूल से मेजें और कुर्सियाँ हमारी बैठक में उठा कर लाई जाती थीं और स्‍कूल के बच्‍चों की छुट्टी हो जाती थी।  तो यह कोई तरीका नहीं है और जब वहाँ आपको पौष्टिक आहार देना है तो मैं तो नहीं करूँगा यह, वह तो सरपंच साहब या जो महिला सदस्‍या हैं उनको अपने ऊपर लेना पड़ेगा और यह बड़ी खुशी की बात है कि हमने महिलाओं का भरपूर सहयोग इन संगठनों में रखा है।  वह चुन कर आई हैं, और कहीं–कहीं तो पुरुषों के बदले वे ही चुन कर आई हैं।
    कर्नाटक में या किसी दूसरे राज्‍य में कहा गया था कि 33 प्रतिशत की बजाय 46 प्रतिशत महिलाएँ चुन कर आई हैं।  मैं उनका स्‍वागत करता हूँ।  इसके साथ-साथ यह जो आपके सामने चुनौती है इस कार्यक्रम की जिसको शायद आपने पहले कभी नहीं लिया है इस चुनौती का सामना करने के लिए आपको संगठित शक्ति चाहिए।  अपसी झगड़ों  से परे हट कर आपको देखना है कि जो गाँव में गरीबी है उसे कैसे दूर करना है। कई समाजशास्त्रियों ने यह कहा है कि आज एक बहुत बड़ा अवसर मिल गया है कि पंचायतों को गरीबी को हटाने का उपाय आप सोच सकते हैं बाहर कोई नहीं सोच सकता।  तो यह तीसरा काम करना है।  एक तो वोटिंग का, दूसरा विकास वाला और तीसरा जो बुनियादी काम है गरीबी हटाने का, शीघ्र करना है ।
     उपसभापति जी, यह आपकी परीक्षा भी होगी और आपकी सफलता भी होगी।  पैसा वहाँ पहुँचाने की सीमा तक हमारी सफलता है, हमारा काम है। लेकिन जब सही आदमी को सही सहायता मिलती है, तो वह सफलता आपकी रहेगी और आप ही के माध्‍यम से काम होगा।  मुझे यह कहते हुए बड़ी खुशी हो रही है, मैं आशान्वित हूँ, जो आज तक नहीं हुआ, अब होने को है।  हम बहुत सोच रहे हैं कि ये पैसा कहाँ भेजें।  हम शासन में हैं और राजनीति में हैं और पार्टी राजनीति है।  तो यह रुझान भी हमको देखने को मिला है कि यहाँ भेजा हुआ पैसा, किसी और में अपने नाम से वहाँ खर्च किया।  अपनी पार्टी के नाम से या अपनी पार्टी के बनाए हुए किसी लेबिल के नीचे उस पैसे को खर्च किया।   मैं आपको बताना चाहता हूँ कि इसकी कोई आवश्‍यकता नहीं है
    मुझे नहीं मालूम, यहाँ जो सरपंच बैठे हुए हैं उनमें से किस पार्टी का कौन है, कितने हैं, मुझे इसकी परवाह भी नहीं है।  यह मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि हमारा राज तीन स्‍तरों पर चल रहा है एक केंद्रीय स्‍तर, एक राज्य स्‍तर और तीसरा जिसको आप स्‍थानीय कहते हैं जिसके आप प्रतिनिधि हैं।  इन तीनों स्‍तरों पर राजनीति चल रही है।  इसमें पार्टी की कोई आवश्‍यकता नहीं है, पार्टीबाजी की कोई आवश्‍यकता नहीं है और पार्टी के नाम पर कोई झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं है।  
    जब केंद्रीय सरकार से पैसा आता है तो यह मानकर चलना चाहिए कि केंद्रीय सरकार से पैसा आता है, केंद्रीय सरकार उन्‍हीं की बनाई हुई, जिन्‍होंने राज्‍य सरकार बनाई है।  केंद्रीय सरकार में हमेशा एक ही पार्टी रहेगी, इसका क्‍या है कोई भी पार्टी आ सकती है केंद्र में लेकिन केंद्र सरकार, केंद्रीय सरकार ही रहेगी।  तो इसको छिपाना और इस पर पर्दा डालना और इसको कुछ उलटा–पुलटा समझाने का कोई लाभ नहीं है।  लोग अपने आप समझ जाएँगे कि पैसा केंद्रीय सरकार का है केंद्रीय सरकार का मतलब है, यह भी लोगों का ही है।  लेकिन हमारे संविधान में तीन स्‍तर बने हुए हैं केंद्र, राज्‍य और स्‍थानीय।  इन तीनों में विभाजन जैसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए और समझ लेना चाहिए।  राज्‍य सराकर हमारे कार्यक्रमों को बदल डाले, कोई दूसरा नाम दे और ये पैसा दूसरे नाम से खर्च करने लगे ठीक नहीं है।  

Wednesday, 10 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 11 Oct, 2018 at Youtube


          सभापति महोदय, विकास की यह दीर्घकालीन चुनौती है कि हम अधिक से अधिक प्रयत्‍न करें और जिस प्रकार धनी और पिछड़े देशों को आपस में सहायोग करना आवश्यक है उसी तरह विकासशील देशों को भी एक दूसरे से व्‍यापार और दूसरे तरीकों से सहायता देकर सहयोग करना चाहिए।  हमारे लिए अपने साधन और कौशल को आपसी लाभ के लिए बाँटना संभव होना चाहिए।  इस प्रकार के द्विपक्षीय सहयोग का परिणाम यह होगा कि क्षेत्रीय आर्थिक सहयेाग के लिए बहुत से देशों में आपस में समझौते होंगे।
    सामाजिक लक्ष्‍य सिद्ध करने के लिए आं‍तरिक एकता और बाहरी खतरे से मुक्ति भी बेहद आवश्‍यक है।  संसार के सात बड़े देशों में से पाँच एशिया में हैं और उनमें इंडोनेशिया और भारत की भी गिनती होती है।  हम आशा करते हैं कि हमारा सारा क्षेत्र शांति और सहयोग का क्षेत्र होगा जिस पर किसी बाहरी शक्ति का न तो दबाव होगा और जहाँ न किसी प्रकार का तनाव और आपसी विरोध होगा।  तनाव तब हेाता है जब कोई देश दूसरे देश के मामलों में हस्‍तक्षेत्र करे।  यही कारण हे कि हम हमेशा इस तरह के हस्‍तक्षेप के विरूद्ध रहे हैं और हमारा सदा यह विश्‍वास रहा है कि सब देश शांति और सहअस्तित्‍व की भावना से रहें।    
    जिन सिद्धान्‍तों पर हमारी विदेश नीति आधारित है, उनमें से एक सिद्धान्‍त गुट-निरपेक्षता है।  हम सैनिक गठबंधन से बाहर रहे हैं, क्‍योंकि हम समझते हैं कि इस तरह के गठबंधनों से थोड़ी देर के लिए सुरक्षा का धोखा हो जाता है।  वास्‍तवि‍क शक्ति कभी नहीं प्राप्‍त होती।  आजकल शक्ति शून्‍यता या रिक्‍तता की बहुत चर्चा है और किसी क्षेत्र से विभिन्‍न राष्‍ट्रों की सेनाएँ हट जाने से जो रिक्‍तता हो सकती है उसके बारे में मुझसे प्रश्‍न पूछे गए हैं।  मैं यह भविष्‍यवाणी नहीं कर सकती कि क्‍या होगा लेकिन यह कहा जा सकता है कि जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा और हालैंड ने इंडो‍नेशिया छोड़ा तो उससे दोनों देशों में शक्ति शून्‍यता आ गई।  लेकिन हमारे राष्‍ट्रों ने इसे तत्‍काल भर दिया।  मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि इस क्षेत्र के देश इस रिक्‍तता को स्‍वयं भर सकते हैं।  एशिया में दो युद्ध हो चुके हैं।  वियतनाम में एक आशा की किरण फूटी है कोई भी समझौता हो, यह निश्‍चय है कि इससे नई चुनौतियाँ, नई समस्‍याएँ सामने आएँगी।  हम सब को इस तरह की समस्‍याओं को हल करने में सहायता करनी चाहिए।

Sunday, 7 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 8 Oct, 2018 at Youtube




          सभापति महोदय, विकास की यह दीर्घकालीन चुनौती है कि हम अधिक से अधिक प्रयत्‍न करें और जिस प्रकार धनी और पिछड़े देशों को आपस में सहायोग करना आवश्यक है उसी तरह विकासशील देशों को भी एक दूसरे से व्‍यापार और दूसरे तरीकों से सहायता देकर सहयोग करना चाहिए।  हमारे लिए अपने साधन और कौशल को आपसी लाभ के लिए बाँटना संभव होना चाहिए।  इस प्रकार के द्विपक्षीय सहयोग का परिणाम यह होगा कि क्षेत्रीय आर्थिक सहयेाग के लिए बहुत से देशों में आपस में समझौते होंगे।
    सामाजिक लक्ष्‍य सिद्ध करने के लिए आं‍तरिक एकता और बाहरी खतरे से मुक्ति भी बेहद आवश्‍यक है।  संसार के सात बड़े देशों में से पाँच एशिया में हैं और उनमें इंडोनेशिया और भारत की भी गिनती होती है।  हम आशा करते हैं कि हमारा सारा क्षेत्र शांति और सहयोग का क्षेत्र होगा जिस पर किसी बाहरी शक्ति का न तो दबाव होगा और जहाँ न किसी प्रकार का तनाव और आपसी विरोध होगा।  तनाव तब हेाता है जब कोई देश दूसरे देश के मामलों में हस्‍तक्षेत्र करे।  यही कारण हे कि हम हमेशा इस तरह के हस्‍तक्षेप के विरूद्ध रहे हैं और हमारा सदा यह विश्‍वास रहा है कि सब देश शांति और सहअस्तित्‍व की भावना से रहें।    
    जिन सिद्धान्‍तों पर हमारी विदेश नीति आधारित है, उनमें से एक सिद्धान्‍त गुट-निरपेक्षता है।  हम सैनिक गठबंधन से बाहर रहे हैं, क्‍योंकि हम समझते हैं कि इस तरह के गठबंधनों से थोड़ी देर के लिए सुरक्षा का धोखा हो जाता है।  वास्‍तवि‍क शक्ति कभी नहीं प्राप्‍त होती।  आजकल शक्ति शून्‍यता या रिक्‍तता की बहुत चर्चा है और किसी क्षेत्र से विभिन्‍न राष्‍ट्रों की सेनाएँ हट जाने से जो रिक्‍तता हो सकती है उसके बारे में मुझसे प्रश्‍न पूछे गए हैं।  मैं यह भविष्‍यवाणी नहीं कर सकती कि क्‍या होगा लेकिन यह कहा जा सकता है कि जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा और हालैंड ने इंडो‍नेशिया छोड़ा तो उससे दोनों देशों में शक्ति शून्‍यता आ गई।  लेकिन हमारे राष्‍ट्रों ने इसे तत्‍काल भर दिया।  मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि इस क्षेत्र के देश इस रिक्‍तता को स्‍वयं भर सकते हैं।  एशिया में दो युद्ध हो चुके हैं।  वियतनाम में एक आशा की किरण फूटी है कोई भी समझौता हो, यह निश्‍चय है कि इससे नई चुनौतियाँ, नई समस्‍याएँ सामने आएँगी।  हम सब को इस तरह की समस्‍याओं को हल करने में सहायता करनी चाहिए।

Friday, 5 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 6 Oct, 2018 at Youtube


    सभापति महोदय, मैं आपको बता सकता हूँ अपने अनुभव से कि भारत जब स्‍वतंत्र हुआ तो यहाँ बहुत दंगे हुए।  लोगों को बड़ी परेशानी हुई और उनको इधर से उधर जाना पड़ा तो कुछ लोग कहने लगे कि इस स्‍वतंत्रता से हमें क्‍या मिला, इस जनतंत्र से हमें क्‍या मिला, इस लोकतंत्र से हमें क्‍या मिला।  जब इतनी बर्बादी हुई हम अंग्रेजी सरकार से किस तरह से बेहतर हैं?  तो उस जमाने में लोगों के सामने जो पेरशानी आई थी, जो उनका सामना नहीं कर सकते थे उन्‍हें अंग्रेज सरकार अच्‍छी लगती थी, क्‍योंकि अंग्रेजी सरकार में उनको शांति थी और हमारी जब सरकार आई तो अशांति हो गई।  कुछ लोग स्‍वतंत्रता की कोई भी कीमत देने के लिए तैयार नहीं हैं।  वे चाहते हैं कि नि:शुल्‍क ही मिले।  हम जानते हैं कि और देशों में स्‍वतंत्रता की प्राप्ति के लिए बहुत संख्‍या में मारकाट हुई।  महात्‍मा गांधी के पुण्‍य से, उनके आशीर्वाद, उनकी पहल से और उनके बनाए हुए वातावरण से हमें बहुत थोड़ी कीमत ही स्‍वतंत्रता के लिए देनी पड़ी।  फिर भी कुछ लोग इस कीमत को देने के लिए तैयार नहीं थे।  इसलिए यह कहना कि अगर एक बार हमें जनतंत्र मिल गया तो हमेशा के लिए पक्‍का रहेगा यह ठीक नहीं है।  हमारे समाज में ऐसे कमजोर लोग बहुत हैं जो समझते हैं कि यह पद्धति ही खराब है जिससे हमें परेशानी हुई है।  कोई दुकानदार है उसको क्‍या फर्क पड़ता है कि कौन-सी पार्टी आए और कौन-सी पार्टी जाए, जनतंत्र आए या जाए अंतर पड़ता होगा अप्रत्‍यक्ष रूप में, लेकिन प्रत्‍यक्ष में उनको अंतर नहीं पड़ता है इसलिए हमने आज  यह काम किया है पंचायती राज के माध्‍यम से हमारे संविधान निर्माताओं ने जो काम करवा कर दिखाना चाहा वह यह था कि लाखों हमारे लोग हमारे देश में इस नई प्रणाली में इस नई व्‍यवस्‍था में जुट जाएँ।
    पंचायती राज पहली बार 1959 में जब पंडित जी लेकर आए तो हमारी पंचायती समितियाँ आदि सब बनीं।  लेकिन और रूप में बनीं तो उन पंचायती समितियों में कभी चुनाव हुए, कभी नहीं हुए और मुख्‍य मंत्री को ऐसा लगने लगा या जिस पार्टी का शासन उस राज्‍य में था, उस पार्टी को ऐसा लगा, अगली बार चुनाव करेंगे तो शायद हमारा बहुमत नहीं आएगा तो उन्‍होंने पंचायतों के चुनाव नहीं किए।

Tuesday, 2 October 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 3 Oct, 2018 at Youtube





     सभापति महोदय, बहुत कम हुआ है कि सारे भारतवर्ष के प्रतिनिधियों को एक जगह एकत्रि‍त होने का ऐसा अवसर जैसा आज मिला है, कहीं विधानसभा में, कहीं संसद में, कहने को तो आज भारत के ही हम सब प्रतिनिधि हैं लेकिन जो विशाल प्रतिनिधित्‍व आज मैं अपने सामने देख रहा हूँ जिसमें जीवन का एक स्‍पंदन सारे भारत के हृदय की धड़कन है, वह मैं देख रहा ंारत के हृदय की धड़कर है, वह मैं देख रहा हूँ।  शायद अन्‍यत्र ऐसा दृश्‍य नहीं मिलता, इसलिए आप सब को फिर एक बार मैं हृदय से कहना चाहता हूँ कि यह साक्षात्‍कार आपका और हमारा हो रहा है यह एक नए इतिहास की नींव डालता है यह एक नए इतिहास का प्रतीक है।  यदि कहा जाए कि सन् 1947 के बाद भारत की कोटि-कोटि‍ जनता को और एक बार स्‍वतंत्रता मिली है, और एक बार स्‍वराज मिला है और सच्‍चा स्‍वराज मिला है जिसका वे अनुभव कर सकते हैं जिसको वे उपयोग कर सकते हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  
हमारे संविधान में हमारे संविधान बनाने वालों ने यह अनुभव किया था कि खाली संसद बनने से और विधान सभाओं के बनने से हमारा स्‍वराज्‍य पूरा नहीं हो सकता।  हमारे स्‍वराज का ढाँचा, हमारी संसद का ढाँचा पूरा नहीं होता लेकिन उनके पास समय नहीं था।  उनको चार वर्ष में संविधान बनाना था इसलिए उन्‍होंने उसको बनाया।  केंद्र और राज्‍य स्‍तरों पर बनाया और उसके आनुषंगिक जो भी संस्‍थाएँ और संगठन हो सकते थे, जिनकी कल्‍पना की जा सकती थी जैसे उच्‍चतम न्‍यायालय, उच्‍च न्‍यायालय और लोक सेवा आयोग इन सारी चीजों की कल्‍पना करके उन्‍होंने संविधान बनाया।  लेकिन बहुत कुछ उनको छोड़ देना पड़ा चार वर्ष में वे पूरा नहीं कर सकते थे  इसके कई कारण थे।  संविधान सभाओं की चर्चाओं में कई बातें आ गई थीं किसी ने कहा कि इसकी क्‍या आवश्‍यकता है।  किसी ने कहा कि इसकी बड़ी आवश्‍यकता है।  इसलिए उन्‍होंने कुछ निर्देशक सिद्धांत दिए।  कुछ ऐसे सिद्धांत दिए जिसके अनुसार सरकारों को आगे कार्य करना था।  उन्‍होंने कहा कि यह आप कीजिए उनमें से पंचायती राज एक है उन सिद्धांतों में यह भी है कि जितना शीघ्र हो सके यहाँ पंचायती राज संस्‍थाएँ स्‍थापित हों।
    आज मैं आपको एक छोटा-सा उदाहरण देता हूँ।  हमने अपने लिए लोकतांत्रिक पद्धति चुनी, अपनाई लेकिन लोकतांत्रिक पद्धति का क्‍या आशय होता है।

Sunday, 30 September 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 1 Oct, 2018 at Youtube



     महोदय, हम अपनी स्‍वतंत्रता के स्‍वर्ण-जयंती वर्ष के दौर से गुजर रहे हैं तथा इस संबंध में अनेक समारोहों के आयोजन हो रहे हैं।  इस वर्ष में हमारी परमाणु परीक्षण जैसी महत्‍वपूर्ण उपलब्धियाँ भी रही हैं।  हमने स्‍वतंत्रता संग्राम के उन लाखों जाने-अनजाने शहीदों को याद किया जिनके बलिदानों से देश को स्‍वतंत्रता मिली लेकिन इसके साथ ही यह विडंबना भी रही कि हम अपनी स्‍वतंत्रता की लड़ाई के उन योद्धाओं की खोज-खबर लेना भूल गए हैं जिनमें से अनेक हमसे प्रति वर्ष बिछुड़ते जा रहे हैं और उनकी संख्‍या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है।  इन बुजुर्ग स्‍वतंत्रता सेनानियों की स्थिति इस समय क्‍या है, इस बारे में हमें हिमाचल स्‍वतंत्रता सेनानी परिषद, शिमला के अध्‍यक्ष श्री गौरी प्रसाद का एक पत्र मिला है जिसे हम हिमाचल के मुख्‍यमंत्री के ध्‍यानार्थ यहाँ यथावत प्रकाशित कर रहे हैं:
    हिमाचल में कभी 2000 से अधिक स्‍वतंत्रता सेनानी थे लेकिन इस समय उनकी संख्‍या लगभग 1200 रह गई है।  ये सभी 80 वर्ष से ऊपर की आयु के हैं।  कुछ वर्षों बाद इनमें से कोई शेष नहीं रहेगा।  इन स्‍वतंत्रता सेनानियों का परिवार विधायकों तथा सांसदों के परिवार से बिल्‍कुल ही अलग है।  इन्‍होंने स्‍वतंत्रता आंदोलन में जो यातनाएँ सही थीं, वे किसी पद या स्‍वार्थ के लिए नहीं सही थीं।  उनका लक्ष्‍य तो केवल देश को दासता से मुक्‍त कराना था।  हमने विदेशी शासन की दासता के विरुद्ध ही नहीं बल्कि प्रदेश की छोटी-बड़ी 30-35 रियासतों के राजाओं व राणाओं के दमनकारी शासन से जनता को मुक्‍त कराने के लिए संघर्ष किया तथा उसके फलस्‍वरूप वर्तमान हिमाचल प्रदेश अस्तित्‍व में आया।  इतिहास साक्षी है कि देश की स्‍वतंत्रता मिलने के उपरांत भी इन स्‍वाभिमानी योद्धाओं ने सरकार से अपने लिए कुछ अपेक्षा नहीं की।
    अपना सब कुछ स्‍वतंत्रता संग्राम में लगा देने वाले इन सेनानियों के जीवनयापन की नाजुक स्थितियों को देखते हुए केंद्र तथा प्रदेश सरकारों ने इन्‍हें कुछ सुविधाएँ तथा सम्‍मान राशि देने का निर्णय किया, जो विभिन्‍न राज्यों में अलग-अलग है।  दुख की बात तो यह है कि जहाँ हिमाचल में स्‍वर्ण-जयंती वर्ष में अनेक समारोह किए जा रहे हैं, वहाँ इन स्‍वतंत्रता सेनानियों को किंचित भी सम्‍मान नहीं मिला।    पूर्ववर्ती वीरभद्र सिंह सरकार ने इनको राहत पहुँचाने के लिए जो निर्णय लिए थे, आज ठीक उसके विपरीत होता हुआ नजर आ रहा है।
     महोदय, पंजाब, हरियाणा, दिल्‍ली, उत्‍तर प्रदेश तथा अन्‍य राज्‍यों में जहाँ स्‍वतंत्रता सेनानियों को 1500-2000 रुपए की सम्‍मान राशि दी जा रही है, वहाँ हिमाचल में यह राशि मात्र 500 रुपए ही है।  पंजाब में स्‍वतंत्रता सेनानियों के मामलों की देख-रेख के लिए एक अलग विभाग है लेकिन हिमाचल में स्‍वतंत्रता सेनानी कल्‍याण बोर्ड का जन संपर्क कार्यालय भी बंद कर दिया गया है।  सचिवालय में कल्‍याण बोर्ड का जो कार्यालय था वह भी लगभग बंद-सा है।  समारोहों व कार्यलयों में स्‍वतंत्रता सेनानियों को जो सम्‍मान उन्‍हें मिलता था वह भी बंद कर दिया गया है।  हिमाचल भवन, दिल्‍ली तथा सरकारी विश्रामगृहों में आवास की सुविधा मिलने में कठिनाई आने लगी है।  राज्‍य परविहन तथा निजी परिवहन में उन्‍हें जो प्राथमिकता मिलती थी वह भी लगभग बंद हो गई है।  सरकारी अस्‍पतालों में वांछित उपचार सुविधा न मिल पाने तथा अभद्र व्‍यवहार किए जाने के कारण उन्‍हें प्रइवेट अस्‍पतालों की शरण में जाने को विवश होना पड़ रहा है। इस संबंध में आने वाले खर्च को वहन करना उनके लिए अत्‍यंत कठिन है।  उनकी पुत्रियों तथा पौत्रियों के विवाह के लिए जो अनुदान मिलता था वह अब समय पर नहीं मिलता और इसमें भी पक्षपात किया जाने लगा है। स्‍वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों के लिए प्रशिक्षण संस्‍थानों तथा नौकरियों में 2 प्रतिशत आरक्षण कागजों पर ही है।
    मुख्‍यमंत्री के कार्यकाल में उनकी अध्‍यक्षता में गठित कल्‍याण बोर्ड व उसके अंतर्गत गठित उपसमिति द्वारा लिए गए निर्णय पता नहीं किस मिसिल में दबे हुए हैं।  इन स्‍वतंत्रता सेनानियों को सरकार तथा समाज द्वारा जो सम्‍मान पेंशन तथा अन्‍य कुछ सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं वह इन पर कोई अहसान नहीं बल्कि यह तो इनके त्‍याग व बलिदान के प्रति हमारी कृतज्ञता का प्रदर्शन है।  आज हमारे सांसद व विधायक अपने वेतन, भत्‍ते, पेंशन बढ़ाने के लिए तो निर्विरोध विधेयक पास कर देते हैं लेकिन उन्‍हें अपने जीवन की संध्‍या पर पहुँचे हुए कुछ हजार स्‍वतंत्रता सेनानियों के बारे में सोचने का समय ही नही है।  यह दुख की बात है कि हिमाचल सराकर अपने मुठ्ठी भर स्‍वतंत्रता सेनानियों को अन्‍य राज्‍यों की तरह सम्‍मान राशि व सुविधाएँ प्रदान नहीं कर रही है।  आशा है कि मुख्‍यमंत्री अब राजनीतिक स्थिरता प्राप्‍त करने के उपरांत इस ओर ध्‍यान देकर ऐसी व्‍यवस्‍था करेंगे जिनसे ये जिंदा शहीद सम्‍मानपूर्वक आराम से अपना शेष जीवन बिता सकें।

Thursday, 27 September 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 28 Sept, 2018 at Youtube


     माननीय उपाध्‍यक्ष महोदय, मैं दिल्‍ली विकास संशोधन विधेयक, 1966 का समर्थन करने के लिए खड़ा हुआ हूँ।  मंत्री जी ने दिल्‍ली विकास अधिनियम 1957 में संशोधन के लिए यह बिल यहाँ प्रस्‍तुत किया है।  पहले दिल्‍ली महानगर परिषद के सदस्‍यों का चयन डी.डी.ए. में हुआ करता था। अब दिल्‍ली राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र बन जाने से यहाँ राज्‍य के रूप में विधान सभा गठित हो गई है।  इसलिए विधायकों का उसमें चयन करने के लिए यह संशोधन विधेयक हमारे सामने है।  मैं अपनी ओर से तथा अपनी पार्टी की ओर से इसका समर्थन करता हूँ।
    उपाध्‍यक्ष महोदय, मैं आपके माध्‍यम से मंत्री जी का ध्‍यान खींचना चाहता हूँ।  अभी आदरणीय जगमोहन जी ने उसका उल्‍लेख भी किया था।  दिल्‍ली की जनसंख्‍या एक करोड़ से ऊपर हो गई है, यानी एक करोड़ से भी अधिक होने को है।  यहाँ पर गरीब लोग और कम आय वाले लोग भी रहते हैं, जो अधिकतर कॉलोनियों में रहते हैं।  अनधिकृत कॉलोनियों की संख्‍या 1210 है।  इन बस्तियों में ये लोग फटेहाल और परेशानी में अपना जीवन व्‍यतीत करते हैं।  इसलिए कि इन बस्तियों को नियमित नहीं किया गया है।  जिस कारण उन्‍हें सरकारी सुविधाएँ जैसे बिजली, पानी और राशन कार्ड न होने की वजह से राशन नहीं मिल पाता।
    पिछले दिनों जंतर-मंतर के पास इन बस्तियों के हजारों लोगों ने 49 दिन तक धरना भी दिया था।  एक रोज ऐसा भी आया कि कम से कम पाँच हजार परिवार अपने बाल-बच्‍चों के साथ ठंड में वहाँ पड़े रहे।  यह मंत्री जी को अच्‍छी तरह ज्ञात भी है।  माननीय पर्यावरण राज्‍य मंत्री उनके प्रतिनिधिमंडल को प्रधानमंत्री जी के पास ले गए और उनको आश्वासन मिला कि हम उस पर कार्यवाही करेंगे।  यह भी आश्वासन मिला कि अनधिकृत बस्तियों को अधिकृत किए जाने की कार्यवाही होगी।  लेकिन उस बात को बीते एक महीना हो गया है।  हम सरकार से जानना चाहते हैं कि गरीब मध्यम वर्ग के लोग इन 1210 बस्तियों में परेशान हैं, जिन्हें बिजली, पानी और राशन नहीं मिल रहा है।  उनकी जो परिस्थिति है, उसको देखते हुए क्या सरकार इसी महीने में संसद के इसी सत्र में ऐसी व्यवस्था करेगी कि उन बस्तियों को अधिकृत रुप में नियमित कर दिया जाए।  उन्हें बिजली तथा पानी का कनैक्शन मिले, राशन कार्ड मिले, यह मैं कहना चाहता हूँ।

Tuesday, 25 September 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 26 Sept, 2018 at Youtube


     महोदय, शायद विकास की समस्‍या का यह एक सटीक उदाहरण है, एक ऐसे विकास का जो अब तक हुए विकास को तथा उस विरासत को भी सुरक्षित रखे, जिस पर उसकी नींव रखी गई।  आज के सरल विकल्‍प कल हमारे लिए पश्‍चाताप का कारण बन सकते हैं।  इसलिए एक और महत्‍वपूर्ण क्षेत्र जिसमें भारत व अमरीका, हमारे लोग, सहयोग कर सकते हैं, ऐसी प्रौद्योगिकियों का पता लगाना है जिनसे दायित्‍वपूर्ण ढंग से विकास किया जा सके।  माननीय उपराष्‍ट्रपति जी, दो वर्ष पहले आपने एक पुस्‍तक लिखी थी, जिसे एक समालोचक ने एक राजनीतिज्ञ का विलक्षण योगदान माना था, क्‍योंकि वह पुस्‍तक आपने स्‍वयं लिखी थी, उसे पढ़ते समय, मेरे अंदर न केवल आपकी लेखन शैली के बल्कि आपकी विषय-वस्‍तु के कारण भी रुचि पैदा हुई।  उसमें मैंने महात्‍मा गांधी के बारे में एक ऐसा दृष्‍टांत पढ़ा जिससे मैं पहले परिचित नहीं था।  आज उसे दोहराने की आवश्‍यकता है और मुझे आशा है कि आप मुझे इसकी अनुमति देंगे।  आपने लिखा है कि गांधी जी के पास एक महिला पहुँची जो इस बात से परेशान थी कि उसका पुत्र बहुत अधिक शक्‍कर खाता है।  उस महिला ने गांधी से अनुरोध किया कि आप मेरे पुत्र को शक्‍कर की हानियों के बारे में समझाएँ।  महात्‍मा गांधी ने ऐसा करने का वचन दिया पर एक पखवाड़े के बाद आने के लिए कहा।  उस महिला ने वैसा ही किया और गांधी जी ने अपने वचन के अनुसार उस लड़के को सलाह दी।  माँ ने उसके प्रति बहुत-बहुत आभार व्‍यक्‍त किया लेकिन वह अपनी इस उलझन को छिपा न सकी कि आखिर गांधी जी ने क्‍यों मुझे दो सप्‍ताह बाद आने के लिए क‍हा।  गांधी ने बड़ी ईमानदारी से उत्‍तर दिया: मुझे स्‍वयं शक्‍कर खाना छोड़ने के लिए दो सप्‍ताह की आवश्‍यकता थी।
    हम अब एक ऐसी शताब्‍दी के समापन वर्षों में हैं जिसने युद्ध की विनाश लीला देखी है, जो मानव की वैज्ञानिक, बौद्धिक और रचनात्‍मक सफलताओं से गौरवांवित हुई है, जो कमी और निर्धनता से ग्रस्‍त रही है फिर भी जो हमारी सामूहिक क्षमता के बल पर ऐसे समाधान ढूँढने में सफल रही है जो अब तक हमें नहीं मिले थे।  हम उन समाधानों को मानते हैं।  परंतु किसी और को उन्‍हें अपनाने के लिए कहने से पहले हमें, गांधीजी की तरह उन पर पालन करने के लिए कम-से-कम दो या तीन सप्‍ताह का समय लेना पड़ेगा।  

Sunday, 23 September 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 24 Sept, 2018 at Youtube



महोदय, विकासशील देशों में सरकार का बड़ा प्रभाव होता है।  जब उन देशों की सरकारें बदलती हैं तो विकसित देशों की तुलना में इन देशों की जनता का कहीं अधिक बड़ा भाग इन परिवर्तनों से प्रभावित होता है।  यह बात सरलता से देखी जा सकती है।  जब विकासशील देशों में चुनाव होते हैं तो वहाँ भारी संख्‍या में मतदाता वोट डालते हैं।  इसी हिसाब से यदि लोकतंत्री प्रणाली भंग हो जाए तो उससे होने वाली निराशा और परिणामस्‍वरूप उस पर से विश्‍वास उठ जाने की कल्‍पना की जा सकती है।  इस तरह हर जगह राजनीतिक स्थिरता लोकतंत्र की सफलता पर निर्भर करती है। अत: प्रश्‍न यह है चूँकि ब्‍लॉकों की व्‍यवस्‍था के लोकतंत्र को विशेष महत्‍व नहीं दिया जाता था या शायद नहीं दिया जा सकता था, फिर क्‍या आज यह सोचना आवश्‍यक नहीं हो गया कि सुस्‍थापित लोकतंत्र विश्‍व में अपनी प्रणाली की सफलता के लिए क्‍या करें, जिससे सरकारों का काम स्‍पष्‍ट नजर आए और वे हर जगह जन सामान्‍य की आकांक्षाओं के अनुसार चलें।  इस बात का मेरे पास अभी कोई बना बनाया जवाब नहीं है किंतु मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यह विषय ध्‍यान दिए जाने योग्‍य है।  मैं एक ऐसे  व्‍यक्ति के रूप में आपका ध्‍यान दिलाना चाहता हूँ, जिसने एक विकासशील समाज के सबसे निचले स्‍तर पर काम किया और अनुभव पाया, जिसने महान नेताओं के नेतृत्‍व में स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, स्‍वतंत्रता प्राप्‍त की, और तब से उस स्‍वतंत्रता को मजबूत बनाने के लिए प्रयत्‍नशील है और यह भी एक ऐसे विशाल और विविधता वाले देश में, जहाँ सदियों से कोई भी कार्य सहज ढंग से नहीं हुआ और जहाँ हमें निरंतर तलवार की धार पर चलना पड़ा है।
    एक और विषय है जिसमें हमें जिम्‍मेदारी बरतने की आवश्‍यकता है - विचार और कार्य दोनों में।  इसी भावना के साथ हमें अपने ग्रह पृथ्‍वी के संसाधनों की देखभाल करनी है।  जब हम विकास पथ पर चलने लगते हैं तो हम उन संसाधनों का भी दोहन या दुरूपयोग करने लगते हैं जो वास्‍तव में केवल हमारे नहीं, केवल हमारी भावी पीढि़यों के लिए हैं। मुझे याद है कि 40 वर्ष पहले राज्‍य का विधायक बनने के लिए चलाए गए चुनाव अभियान में मैंने बड़े उत्‍साह के साथ अपने निर्वाचन क्षेत्र में सड़कें बनवाने का आश्‍वासन दिया था।  हमने सड़कें बनवाई किंतु वनों से हाथ धो बैठे।