महोदय, जापान की यात्रा सदा ही सुखद होती है। यहाँ इतना कुछ और इतनी तेजी से हो रहा है कि
यहाँ बार-बार आकर यहाँ के लोगों और देश से बार-बार परिचय करने का महत्व है। जापान की प्रगति की भारतवासी बहुत सराहना करते
हैं। युद्ध के बाद आपका अपने देश का
पुनर्निर्माण और आपकी हाल की आर्थिक सफलताएँ असाधारण हैं, किंतु आपने जिस ढंग से
अपनी राजनीतिक और सामाजिक प्रणाली का कायापलट किया है और लोकतंत्र की स्थापना की
है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं। मैं
वर्तमान जापान की आत्मशक्ति के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करता हूँ। हम भारतवासी आपकी सफलताओं को बड़ी दिलचस्पी से
देखते हैं और इस प्रयत्न में रहते हैं कि आपके कौन-से अनुभव से हमें अपने प्रयत्नों
में सफलता मिल सकती है। कोई चीज भी दूसरे
से पूरी की पूरी उधार नहीं ली जा सकती। उसको
लेकर आत्मसात करना होता है। विज्ञान के
सिद्धांत तो सार्वभौम हैं, लेकिन प्रौद्योगिकी लोगों के सामाजिक वातावरण के अनुकूल ढाली
जानी चाहिए।
जो लोग भारत के बाहर
हैं, उनके
लिए हमारे देश को समझना और हमारे प्रयत्नों की विशालता का अनुमान लगाना कठिन है।
हमने आपसे बहुत बाद में शुरुआत की। जब हम
स्वतंत्र हुए तो हमारे देश के पाँच सौ से ऊपर राजनीतिक टुकड़े थे। जनसंख्या बहुत अधिक थी। भाषाओं और धर्मों की बहुतायत थी। विभिन्न राज्यों में ही नहीं, एक ही राज्य के भिन्न-भिन्न
भागों में विकास का स्तर भिन्न-भिन्न था। इन
सब बातों के कारण हमारी कठिनाइयाँ बहुत बढ़ गईं।
ऐसा विशेष रूप से इस कारण था कि हमने लोकतंत्रीय मार्ग अपनाया।
पिछले
आम चुनावों के बाद बहुत-से राजनीतिक दल उठ खड़े हुए हैं और एक राज्य में
गैरकांग्रेसी दल का शासन है और पाँच राज्यों में कई दलों की संयुक्त सरकारें हैं। हमने इन सब बातों को अपने राजनीतिक विकास का ही
एक चरण माना है। कुछ उग्रवादी दल
हैं। फिर भी अपने उद्देश्य और तौर तरीकों
में वे चाहे जितने भिन्न हों, हमें
उनके मत को इस तरह ढालना है कि वे भी देश की एकता और प्रगति में पूरी तरह भागीदारी
कर सकें। हमने अपने प्रयत्नों से पूरी
ईमानदारी से भावनात्मक एकता और भागीदारी तो पैदा की है, लेकिन उसी से सशक्त स्थानीय
परंपराएँ भी जन्मी हैं। एकता का अर्थ
एक-सा होना नहीं होता।
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