Saturday, 10 November 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 10 Nov., 2018 at Youtube


अफगानिस्तान में तालिबान के तख्ता पलट को 17 साल होने वाले हैं, लेकिन वहां की समस्या अभी तक सुलझी नहीं है। ओसामा बिन लादेन की मौत और जैसे-तैसे लोकतंत्र की बहाली के बावजूद अफगानिस्तान में शांति कायम होना अभी भी दूर की कौड़ी लगता है। यह भी सच है कि बीते कुछ समय में इस्लामिक स्टेट के तेजी से उभार के चलते अफगान समस्या से लोगों का ध्यान हट सा गया था, लेकिन अब जब वह उभार कुछ ठंडा पड़ा है, तो अफगानिस्तान एक बार फिर प्राथमिकता सूची में आ गया है। यह ठीक है कि पिछले तकरीबन डेढ़ दशक में शांति की सारी कोशिशें नाकाम रही हैं, इसलिए मास्को में जो ताजा वार्ता शुरू हो रही है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीद बांधने का कोई कारण नहीं है। लेकिन कोशिश का होना यह तो बताता है कि दुनिया के देशों ने अभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। इस वार्ता की खास बात यह है कि इसमें 12 देशों के प्रतिनिधियों के अलावा तालिबान के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे। यानी वह पक्ष भी शामिल होगा, जिसे वर्तमान समस्या और उसके गहराते जाने का कारण माना जाता है। लोकतांत्रिक सोच यही कहती है कि शांति वार्ताओं में सभी पक्षों को एक साथ बैठना चाहिए, भले ही उसमें से कोई एक अतिवादी क्यों न हो। 
लेकिन इस वार्ता ने भारत की विदेश नीति के लिए एक धर्मसंकट भी खड़ा किया है। भारत का स्टैंड अभी तक यह रहा है कि वह ऐसी किसी वार्ता में शामिल नहीं होगा, जिसमें तालिबान भी मौजूद हों। भारत ने इस नीति को बदला नहीं है, लेकिन नई दिल्ली ने मास्को सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने दो प्रतिनिधि जरूर भेज दिए हैं। भारत के दो अनुभवी पूर्व राजनयिक अमर सिन्हा और टीसीए राघवन इस सम्मेलन में भाग लेंगे। यह ऐसा फैसला है, जिसकी कुछ लोग आलोचना भी कर रहे हैं, लेकिन इस मामले में विदेश मंत्रालय ने जो रणनीति अपनाई है, उसे भी समझा जाना जरूरी है। भारत अगर इस सम्मेलन का बहिष्कार कर देता, तो यह माना जाता कि अफगान समस्या के समाधान में वह कोई भूमिका नहीं निभा रहा है। भारत उन देशों में है, जहां अफगान समस्या का सीधा असर पड़ा था, और बाद के दौर में अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण कार्यों में भी उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे में, यह जरूरी है कि अफगानिस्तान में शांति के किसी भी अंतर्राष्‍ट्रीय प्रयास में भारत के पक्ष को जोरदार तरीके से रखा जाए। सम्मेलन में भारत की भागीदारी को इसी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। भारत कभी ऐसा देश नहीं रहा, जो अतिवादी संगठनों से परहेज की जिद पर हर सूरत में अड़ा रहा हो। अतीत में भी हमने हथियार छोड़कर वार्ता की मेज पर आने वाले कई संगठनों से बातचीत की है। ऐसी ही एक वार्ता इन दिनों नगा विद्रोहियों से चल रही है।
इस समय जब पूरी दुनिया अफगान समस्या को नए ढंग से देख रही है, तो यह बात भी स्पष्ट हो रही है कि पूरे मामले में तालिबान से बड़ी खलनायकी पाकिस्तान की थी। हालांकि अमेरिका जैसे देशों की दिक्कत यह रही है कि उनकी अफगान नीति में पाकिस्तान हमेशा ही केंद्रीय भूमिका निभाता रहा है, इसलिए वे पाकिस्तान के सारे पाप माफ करते रहे हैं। यह वार्ता रूस में हो रही है, इसलिए यह पाकिस्तान की भूमिका के सवाल को उठाने का शायद सबसे अच्छा मौका भी है। भारतीय नजरिये का वार्ता में प्रतिनिधित्व इस लिहाज से भी जरूरी है।

Thursday, 8 November 2018

Shorthand Dictation (Hindi) Matter Published on 09 Nov., 2018 at Youtube


तीन दिन बाद दंतेवाड़ा में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होना है, दीपावली के ठीक अगले दिन माओवादियों की बारूदी सुरंग ने जिस तरह चुनाव ड्यूटी पर लगे एक वाहन को उड़ाया, वह बताता है कि वहां कर्मचारी किस तरह जान जोखिम में डालकर चुनाव प्रक्रिया संपन्न कराने में लगे हैं। इस हमले में वाहन के परखचे उड़ गए और सुरक्षा बलों के जवानों समेत उसमें बैठे कई लोगों को जान गंवानी पड़ी। अभी कुछ ही दिनों पहले इसी क्षेत्र में चुनाव की रिपोर्टिंग करने गए मीडियाकर्मियों पर माओवादियों ने घात लगाकर हमला बोला था और इस हमले में एक पत्रकार की जान भी चली गई थी। ऐसा नहीं है कि खतरा सिर्फ चुनाव कार्य में लगे लोगों, सुरक्षा बलों या फिर चुनाव कवरेज के लिए गए लोगों पर ही मंडरा रहा है। खतरा चुनाव लड़ रहे या चुनाव प्रचार में लगे राजनीतिक दलों के लोगों पर भी है और सबसे बड़ी बात है कि खतरा उन आम लोगों पर भी है, जो तीन दिन बाद मतदान के लिए पोलिंग बूथों पर जाएंगे। माओवादियों ने पूरे क्षेत्र में चुनाव के बहिष्कार की अपील की है। इसके लिए उन्होंने परचे भी बांटे और पोस्टर भी लगाए हैं। माओवादियों की दिक्कत यह है कि ऐसा वे हर चुनाव में करते हैं और इसके बावजूद लोग वहां भारी संख्या में मतदान के लिए जाते हैं। ऐसे में, उनके सामने एक ही चारा बचता है कि वे आतंक पैदा करें, ताकि लोग मतदान के लिए घरों से निकलने में डरें। विस्फोट और हिंसा की ताजा घटनाएं माओवादियों की इसी हताशा का नतीजा है।
समस्या किस तरह की है, इसे चुनाव आयोग भी अच्छी तरह समझ रहा है और सरकारें भी। इसीलिए छत्तीसगढ़ में पहले दौर के मतदान के लिए सुरक्षा बलों के 65 हजार अतिरिक्त जवानों की तैनाती की गई है। माओवाद विरोधी अभियान के लिए इस क्षेत्र में केंद्रीय सुरक्षा बलों के जवान पहले से ही मौजूद हैं। पहले दौर के लिए जिन 18 सीटों पर 12 नवंबर को मतदान होना है, वे सब माओवाद प्रभावित क्षेत्र में ही हैं। इस पूरे क्षेत्र में सुरक्षा बलों की उपस्थिति काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि सुरक्षा बलों की मौजूदगी से आश्वस्त होकर ही लोग घरों से निकलते हैं और मतदान के लिए जाते हैं। इसके अलावा, इन बलों के जवान राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं को भी सुरक्षा देते हैं और मीडियाकर्मियों को भी। इसीलिए आतंकवादी इस क्षेत्र में सुरक्षा बलों को ही सबसे पहले निशाना बनाते हैं।
यह लगभग तय है कि माओवादी इस बार भी मुंह की खाएंगे। हर बार की तरह इस बार भी लोग बड़ी संख्या में वोट देने निकलेंगे और अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देंगे। एक बार फिर जनमत उन बंदूकों को मात देगा, जो उन लोगों के ही खिलाफ खड़ी हैं, जिनकी लड़ाई लड़ने की बात नक्सली करते हैं। लोकतंत्र के साथ जंग में उनकी बंदूकें, उनकी बारूदी सुरंगें भले ही कुछ लोगों की जान ले रही हों, लेकिन वे लगातार हार रही हैं। देश के दूर-दराज के इलाकों में बच गया माओवाद अब कोई विचारधारा नहीं, एक जिद भर है। लोगों की जान लेने वाली जिद को ही आतंकवाद कहा जाता है। एक जिद का मुकाबला एक कड़े संकल्प से ही हो सकता है। इस आतंकवादी जिद को जड़ से उखाड़ने का संकल्प लेने का समय आ गया है। इसके दो ही रास्ते हैं, एक तो लगातार कड़ी कार्रवाई और दूसरे, लगातार ऐसा विकास, जिसका लाभ सभी तक पहुंचे। माओवादी इसीलिए विकास का भी विरोध करते हैं।